शिवराम हरी राजगुरु

शिवराम हरी राजगुरु (24 अगस्त 1908 – 23 मार्च 1931)

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु तीन ऐसे नाम हैं, जिन्हें भारत का बच्चा-बच्चा जानता है। इन तीनों की दोस्ती इतनी महान थी कि इन्होंने एक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये एक साथ वीरगति प्राप्त की। भारत की आजादी के लिये अनेकों देशभक्तों ने अपनी-अपनी समझ से अलग-अलग रास्तों को अपनाया था। इन रास्तों पर चलकर अनेकों देशभक्तों ने शहादत भी प्राप्त की। ऐसे ही देशभक्तों में से एक थे, शिवराम हरी राजगुरु।

राजगुरु और सुखदेव दोनों ही भगत सिंह के बहुत अच्छे मित्र थे। लेकिन इन तीनों में जितनी ख्याति एक देश भक्त के रुप में भगत सिंह को मिली उतनी प्रसिद्धि से सुखदेव और राजगुरु वंचित रह गये। इनके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी प्राप्त हैं। हम अपने वेब पेज के माध्यम से पूरे प्रयासों से राजगुरु से संबंधित तथ्यों को प्रस्तुत कर रहें हैं जिससे हमारी साइट पर आने वाले लोग इनके बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर सकें।

पूरा नाम – शिवराम हरि राजगुरु

अन्य नाम – रघुनाथ, एम.महाराष्ट्र (इनके पार्टी का नाम)

जन्म – 24 अगस्त 1908

जन्म स्थान – खेड़ा, पुणे (महाराष्ट्र)

माता-पिता – पार्वती बाई, हरिनारायण

धर्म – हिन्दू (ब्राह्मण)

राष्ट्रीयता – भारतीय

योगदान – भारतीय स्वतंत्रता के लिये संघर्ष

संगठन – हिन्दूस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन

शहादत – 23 मार्च 1931

सुखदेव की जीवनी (जीवन परिचय)

राजगुरु का जन्म एंव बाल्यकाल

अपने प्राचीन काल से ही महाराष्ट्र की धरती अनाज की पैदावार करने से ज्यादा वीरों की जन्म भूमि के रुप में जानी जाती है। इसी वीर भूमि में वर्ष 1908 में 24 अगस्त, दिन सोमवार को हरिनारायण के घर में शिवराम हरि राजगुरु का जन्म हुआ था। इनकी माता पार्वती बाई थी, जो भगवान शिव में बहुत आस्था रखती थी। सोमवार को भगवान शिव का दिन माना जाता है, जिसके कारण इनके माता-पिता ने इन्हें भगवान शिव का आशीर्वाद मानते हुये, इनका नाम शिवराम रखा। मराठी परिवारों की मान्यता के अनुसार पुत्र के नाम के पीछे उसके पिता का नाम जोड़ा जाता है। इस तरह इनका पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरु पड़ा। इनकी माता इन्हें प्यार से ‘शिव’ और ‘बापू साहेब’ कहकर बुलाती थी।

परिवार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और परिवार को ‘राजगुरु’ की उपाधी

राजगुरु के बारे में प्राप्त एतिहासिक तथ्यों से ये ज्ञात होता है कि शिवराम हरी अपने नाम के पीछे राजगुरु उपनाम के रुप में नहीं लगाते थे, बल्कि ये इनके पूर्वजों के परिवार को दी गयी उपाधी थी। इनके पिता हरिनारायण पं. कचेश्वर की सातवीं पीढ़ी में जन्में थे। पं. कचेश्वर की महानता के कारण वीर शिवाजी के पोते शाहूजी महाराज इन्हें अपना गुरु मानते थे।

पं. कचेश्वर वीर शिवाजी द्वारा स्थापित हिन्दू राज्य की राजधानी चाकण में अपने परिवार के साथ रहते थे। इनका उपनाम “ब्रह्मे” था। ये बहुत विद्वान थे और सन्त तुकाराम के शिष्य थे। इनकी विद्वता, बुद्धिमत्ता और ज्ञान की चर्चा पूरे गाँव में थी। लोग इनका बहुत सम्मान करते थे। इतनी महानता के बाद भी ये बहुत सज्जनता के साथ सादा जीवन व्यतीत करते थे।

ऐसा कहा जाता है कि एक बार महाराष्ट्र में बहुत भंयकर अकाल पड़ा था तो इन्होंने इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिये यज्ञ किया था। लगातार 2 दिनों तक घोर यज्ञ करने के बाद तीसरे दिन की सुबह से ही बहुत तेज बारिश होने लगी थी। माना जाता हैं कि मन्त्रों का प्रभाव इतना तेज था कि लगातार कई दिनों तक बिना रुके बारिश होती रही। इस घटना के बाद ये पूरे महाराष्ट्र में प्रसिद्ध हो गये। इनकी प्रसिद्धि की सूचना महाराज शाहूजी के पास भी पहुँची तो वो भी इनकी मंत्र शक्ति के प्रशंसक बन गये।

संयोग की बात है कि इस समय शाहू जी अपनी सौतेली चाची ताराबाई के साथ संघर्ष में उलझे हुये थे, जो अपने बेटे के लिये मराठा की राज गद्दी को प्राप्त करना चाहती थी। युद्ध में मराठा सरदारों के ताराबाई से मिल जाने के कारण शाहूजी की शक्ति कम हो गयी थी। पं. कचेश्वर की मंत्रशक्ति के मुरीद हो जाने के कारण ये इनसे मिल कर इनका आशीर्वाद लेने चाकण गाँव पहुँचे। महाराज के इस तरह अचानक अपने घर आने पर पंडित जी ने विस्मित होकर गंभीरता से पूछा “महाराज के इस तरह आने से मैं थोड़ा चिन्तित हूँ। क्या महाराज किसी परेशानी में है?”

 

पं. कचेश्वर की इस तरह की बात सुन कर महाराज शाहूजी ने अपने राज्य के खिलाफ हो रहे षड़यन्त्र के बारे में बताया और युद्ध में अपनी विजय का आशीर्वाद माँगा। पंड़ित जी ने उन्हें ये कहते हुये विजय का आशीर्वाद दिया कि “अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करना प्रकृति का नियम है। सत्य की सदैव विजय होती है। आप बिना किसी डर के शत्रुओं का सामना करों, मुझे विश्वास है कि आपकी विजय अवश्य होगी। मेरा आशीर्वाद और शुभकामनाएँ सदैव आपके साथ है।”

इसके बाद अन्तिम युद्ध में शाहूजी महाराज की विजय हुई और इस विजय का श्रेय उन्होंने पं. कचेश्वर को देते हुये अपना गुरु मान लिया साथ ही इन्हें ‘राजगुरु’ की उपाधी दी। तभी से इनके वंशज अपने नाम के पीछे “राजगुरु” लगाने लगे। महाराज ने इन्हें उपहार स्वरुप 3 गाँव दिये और खेड़ा रहने का आग्रह किया। इन्होंने उपहार लेने से इंकार कर दिया लेकिन महाराज के आग्रह को मानते हुये ये परिवार के साथ खेड़ा आकर रहने लगे।

शिवराम हरी राजगुरु का परिवार

राजगुरु के पिता पं. हरिनारायण का जन्म पं. कचेश्वर नाथ की सातवीं पीढ़ी में हुआ था। अपने पुरखों से विरासत में मिलने वाले गुण इनमें कूट-कूट कर भरे थे। ये बहुत ही धार्मिक और शान्त स्वभाव के थे। सभी गाँव वाले इनका बहुत सम्मान करते थे। इन्होंने दो विवाह किये थे। पहली पत्नी से इनको 6 सन्तानें (1 पुत्र “वामन” और 5 पुत्रियाँ) थी। हरिनारायण ने दूसरा विवाह पार्वती से किया। पार्वती बहुत ही धार्मिक महिला और भगवान शिव में इनकी गहरी आस्था थी। घर के सभी कार्यों को करने बाद इनका शेष समय भगवान शिव की पूजा करने में ही व्यतीत होता था। शिवराम के जन्म से पहले इन्होंने 4 सन्तानों (जिसमें एक पुत्र दिनकर और 3 पुत्रियाँ चन्द्रभागा, वारिणी व गोदावरी) को जन्म दिया था। शिवराम इनकी पाँचवीं सन्तान थे।

राजगुरु के जन्म के समय तक इनका परिवार पहले जितना सम्पन्न नहीं रह गया था। इनके परिवार की प्रतिष्ठा तो वैसी ही थी परन्तु इनका परिवार आर्थिक संकटों से घिरा हुआ था। इनके पिता कर्मकाण्ड और पूजा पाठ करके अपने परिवार का भरण पोषण करते थे। इतने बड़े परिवार में इतनी कम आय से सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती थी। किसी-किसी दिन तो इन्हें भूखे भी रहना पड़ता था।

शिवराम के जन्म के समय ज्योतिष की भविष्यवाणी

अपने कुल की परम्परा को निभाते हुये पं. हरिनारायण ने अपने पुत्र की जन्मपत्री एक उच्च ज्योतिषाचार्य से बनवायी। उसने राजगुरु की ग्रह दिशा को देखते हुये भविष्यवाणी की कि ये बालक बहुत कम उम्र में ही कुछ ऐसा कार्य करेगा जिससे इसका नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। ज्योतिष की ये भविष्य वाणी सत्य सिद्ध हुई। देश की स्वतन्त्रता के लिये किये गये संघर्ष में राजगुरु ने फाँसी पर चढ़कर अपना नाम देश के अमर शहीदों में शामिल कर लिया।

राजगुरु का बाल्यकाल

राजगुरु का परिवार बहुत सम्पन्न नहीं था। इन्होंने एक अभावग्रस्त जीवन व्यतीत किया। इनके जन्म के समय तक उनकी पैतृक (पूर्वजों की) सम्पदा खत्म हो चुकी थी, यदि कुछ शेष था तो बस परिवार का सम्मान। इसी सम्मान और अपने ज्ञान के आधार पर शिवराम के पिता धार्मिक अनुष्ठानों को करते थे। इन अनुष्ठानों और क्रियाक्रमों से जो भी थोड़ा बहुत धन प्राप्त होता वो उसी से अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। उनका परिवार बहुत बड़ा था जिससे सभी की व्यवस्थित देखभाल नहीं हो पाती थी।

 

पिता की मृत्यु

राजगुरु के पिता हरिनारयण अपने परिवार के भरण पोषण के लिये बहुत परिश्रम करते थे। पंडित होने के कारण ये किसी अन्य व्यवसाय को करना अपने धर्म के विरुद्ध मानते थे। अतः पण्डिताई करने से जो कुछ भी इन्हें प्राप्त होता परिवार की आवश्यकताओं को पूरी करने में खर्च कर देते। ये अपने परिवार को आर्थिक संकट से निकालने के लिये बहुत परिश्रम करते थे। कभी-कभी तो इन्हें भूखे भी रहना पड़ता था।

कठिन परिश्रम और अपर्याप्त भोजन के कारण हरिनारायण का दिन प्रतिदिन स्वास्थ्य गिरने लगा। इन्हें भंयकर रोग हो गया, जिसका वैध हकीमों से बहुत इलाज कराया गया, पर न तो रोग का ही पता चला और न ही ठीक ही हुआ। धन के अभाव में इनका उपचार भी सही ढंग से नहीं हो पाया था, जिससे इनकी मृत्यु हो गयी। अपने पिता की मृत्यु के समय राजगुरु 6 साल के थे। कम उम्र में ही राजगरु पिता के स्नेह से वंचित हो गये।

जलियाँवाला बाग हत्याकांड का राजगुरू के व्यक्तित्व पर प्रभाव

जिस समय राजगुरु का जन्म हुआ था, उन दिनों भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिये क्रान्तिकारी आन्दोलन अपने जोरों पर था। अनेक क्रान्तिकारी अंग्रेजी सरकार से संघर्ष करते हुये शहीद हो चुके थे। अंग्रेज सरकार ने अपनी दमनकारी नीतियों को लागू करते हुये भारतीयों पर अपने शासन की पकड़ को और मजबूत करने के लिये 1919 का रोलेक्ट एक्ट लागू किया।

ब्रिटिश सरकार के इस एक्ट के लागू करने के विरोध में जलियाँवाला बाग में एक शान्ति सभा का आयोजन किया गया। लेकिन ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जनरल डायर ने बाग को चारों तरफ से घेर कर वहाँ उपस्थित सभी व्यक्तियों पर गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया। इस बाग के मैदान में प्रवेश करने व बाहर निकलने के लिये केवल एक ही मार्ग था। गोलियाँ चलते ही वहाँ उपस्थित लोगों ने अपनी जान बचाने के उद्देश्य से इधर–उधर भागना शुरु कर दिया। इस हत्याकांड में हजारों की संख्या में निहत्थे निर्दोष लोगों की जान चली गयी थी। वहाँ उपस्थित लोगों में से एक भी व्यक्ति जीवित नहीं बचा। यहाँ तक कि छोटे बच्चों और महिलाओं को भी गोलियों से भून दिया गया था।

इस हत्याकांड की पूरे देश में आलोचना हुई। क्रान्तिकारियों ने अग्रेजों के विरुद्ध अपने संघर्ष को और तेज कर दिया। इस हत्याकांड के समय राजगुरु केवल 11 वर्ष के थे। इन्होंने अपने विद्यालय में शिक्षकों को इस घटना के बारे में बात करते हुये सुना। शिवराम का बाल मन इन बातों को स्पष्ट रुप से न समझ सका। ये अपने शिक्षकों की बातों को गहराई से जानना चाहते थे। लेकिन विद्यालय की छुट्टी की घंटी बजने के कारण ये अपने अध्यापकों से इस बारे में कोई बात न कर सके पर अपने दिमाग से शिक्षकों के आपसी वार्तालाप को भूला भी नहीं पा रहे थे।

स्कूल की छुट्टी होने पर शिवराम अपने घर की ओर चल दिये। पूरे रास्ते में इनके कानों में वो सब बातें गूँज रही थी। साथ ही इनके मन में अनेक सवाल उठे जैसे ये अंग्रेज कौन है? ये भारतीयों पर क्यों अत्याचार कर रहे हैं? देशभक्त कौन होते हैं? भारत को माता क्यों कहते है? आदि।

शिवराम जानते थे कि इनके मन में उठ रहे सारे सवालों का जबाव केवल एक व्यक्ति दे सकता है। वो व्यक्ति खेड़ा गाँव के ही एक वृद्ध थे जो अंग्रेज सेना में फौजी रह चुके थे और 1857 की क्रान्ति शुरु होने पर इन्होंने सेना छोड़ दी थी। अब वो खेड़ा गाँव में ही रह कर खेती का कार्य करने लगे थे, पर उन्हें देश में हो रही सारी उथल-पुथल की पूरी जानकारी रहती थी। यहाँ तक कि उनके बारे में कहा जाता था, कि वो गुपचुप तरीके से क्रान्तिकारियों की मदद करते हैं। अतः विद्यालय खत्म होते ही ये घर की ओर न जाकर सीधे उनके पास गये और उनसे बोले, “द्ददा मुझे आप से कुछ पूछना हैं। क्या आप बता सकते है कि ये देशभक्त कौन होते है और क्या काम करते हैं?”

एक छोटे से बच्चे से इस तरह के सवाल करने पर उस वृद्ध ने शिवराम को बहुत ध्यान से देखा और फिर इनसे बड़े प्यार से पूछा कि तुमने ये सब कहाँ से सीखा? इस सवाल पर मासूम राजगुरु ने अपने विद्यालय में अध्यापकों के आपसी वार्तालाप के बारे में बता दिया। सारी बातों को ध्यान से सुनकर उन्होंने इनके हर सवाल का जबाव बड़े प्यार से दिया। यही वृद्ध वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने नन्हें शिवराम को ये शिक्षा दी थी कि भारत देश हमारा सिर्फ देश नहीं है बल्कि भारत हमारी जननी (माँ) है और हम सब इसकी सन्तान हैं साथ ही जो देशभक्त है, वो अपनी भारत माँ को अंगेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिये संघर्ष कर रहे हैं।

वृद्ध फौजी द्वारा बतायी गयी बातों का राजगुरु के बाल मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इनका खून खौल उठा और ये खुद को एक देशभक्त के रुप में देखने लगे। इन्होंने वृद्ध की ओर देखते हुये कठोर स्वर में कहा, “द्ददा मैं भी बड़ा होकर भारत माँ की आजादी के लिये युद्ध करुगाँ और अपना सब कुछ देश के लिये न्यौछावर कर दूँगा।” इस घटना के बाद शिवराम के मन में क्रान्ति का बीजारोपण हो गया।

राजगुरु की शिक्षा और घर से पलायन

बाल्यकाल में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण राजगुरु अपनी माता के साथ अपने बड़े भाई दिनकर राजगुरु के पास खेड़ा से पूना आ गये। इनकी माँ और बड़े भाई ने मिलकर इनका पालन-पोषण किया। पूना पहुँचने पर इनके भाई ने इनका नाम एक मराठी स्कूल में लिखा दिया। लेकिन ये बाल्यकाल से ही हठी, मस्तमौला और लापरवाह थे। इनका पढ़ाई और अध्ययन कार्यों में मन नहीं लगता था। अंग्रेजों और अंग्रेजी तौर-तरीकों से इन्हें बचपन से ही पूरी तरह नफ़रत हो गयी थी। राजगुरु के स्वभाव को देखकर दिनकर इनके साथ कठोरता से पेश आते और इन्हें हमेशा डाँटते रहते थे।

एक दिन राजगुरु के अध्यापक ने इनकी पढ़ाई में लापरवाही को देखते हुये दिनकर से शिकायत कर दी। शिवराम की लापवाहियों से दिनकर पहले से ही इनसे नाराज रहते थे, अध्यापक की शिकायत ने आग में घी डालने का कार्य किया। दिनकर ने घर पहुँचकर इन्हें बुलाकर गुस्से में पूछा,

“शिव! तुम खेलकूद को छोड़कर पढ़ाई पर ध्यान क्यों नहीं देते? अगले महीने परीक्षा हैं। तुम्हारे मास्टर जी तुम्हारी शिकायत कर रहे थे कि तुमने अभी तक किसी भी विषय की तैयारी नहीं की हैं। इतना सुनकर राजगुरु ने लापरवाही से जबाव देते हुये कहा, मास्टर जी का काम ही शिकायत करना हैं। आप हिन्दी, संस्कृत, गणित किसी भी विषय में मेरी परीक्षा लेकर देख लो, आप को भरोसा हो जायेगा कि मेरी तैयारी है या नहीं।”

इतना सुनकर दिनकर (बड़े भाई) ने कहा कि इन तीनों विषयों को छोड़कर अंग्रेजी की बात करों। अंग्रेजी पढ़ने की बात सुन कर शिवराम ने अपने बड़े भाई से साफ शब्दों में कह दिया कि वो अंग्रेजी का अध्ययन करके अंग्रेज परस्त बनकर ब्रिटिशों के अधीन होकर कार्य नहीं करना चाहते। ये अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा करके बिताना चाहते हैं। दिनकर को राजगुरु की ऐसी बातों को सुनकर बहुत तेज गुस्सा आ गया और उन्होंने इन्हें घर छोड़कर जाने को कह दिया।

राजगुरु शुरु से ही घर-बार को छोड़कर तन-मन से देश की सेवा में लग जाना चाहते थे और दिनकर ने घर से जाने को कहकर इनके इस काम को आसान कर दिया। बड़े भाई के कहने के साथ ही ये बिना कोई देरी किये शाम को ही घर से निकल गये क्योंकि ये नहीं चाहते थे कि माँ और परिवार के अन्य सदस्यों के कहने पर भाई अपना निर्णय बदले और इन्हें फिर से अपने ही घर में कैदी का जीवन जीना पड़े।

पूना से बनारस (काशी) तक की यात्रा

दिनकर द्वारा घर से चले जाने की बात को सुनकर राजगुरु मन ही मन बहुत खुश हुये जैसे बिन माँगे कोई मुराद मिल गयी हो। वो इसी शाम घर से निकल गये। उस रात उन्होंने पूना के रेलवे स्टेशन पर बिताई। अगली सुबह ये पैदल अपने गाँव खेड़ा पहुँचे, लेकिन गाँव के अन्दर न जाकर गाँव के बाहर ही एक मन्दिर पर रुके। इन्होंने भूखे-प्यासे उस मन्दिर पर रात बिताई।

1924 में पन्द्रह वर्ष की आयु में राजगुरु लगातार छः दिनों तक पैदल चलते हुये नासिक पहुँचे। नासिक में इनकी मुलाकात एक साधु से हुई। उस साधु महाराज ने इनके एक समय के भोजन का इन्तजाम कर दिया था। वो साधु स्वभाव से दयालु था अतः शाम को भी इन्हें कुछ ना कुछ खाने को दे देता था। राजगुरु नासिक में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमते हुये ऊब गये थे अतः कभी पैदल और कभी बिना टिकट के यात्रा करते हुये ये झाँसी, कानपुर, लखनऊ होते हुये लगभग 15 दिन बाद बनारस पहुँचे।

बनारस में रहते हुये जीवन के कटु सत्य का अनुभव

राजगुरु ने काशी (बनारस) पहुँचकर एक संस्कृत विद्यालय में प्रवेश लिया और वहाँ संस्कृत का अध्ययन करने लगे। यहीं रहकर शिव ने हिन्दू ग्रन्थों के साथ ही लघु सिद्धान्त कौमुदगी का भी अध्ययन किया। इन्होंने अपने भाई को ख़त लिखकर काशी में संस्कृत का अध्ययन करने की सूचना दे दी। इनके भाई दिनकर काशी में रहने की खबर मिलने पर हरेक महीने 5 रुपये भिजवा देते थे। इतने में राजगुरु का खर्च नहीं चल पाता था अतः इन्होंने अपनी पाठशाला के शिक्षक के यहाँ नौकर का काम करना शुरु कर दिया।

शिवराम उस अध्यापक के घर का सारा काम करते थे। इसके बदले में इन्हें केवल दो वक्त का भोजन मिलता था। ये सारा दिन काम करते थे जिसके कारण इनकी पढ़ाई नहीं हो पाती थी, बदले में इतने काम करने के बाद भी गालियों के साथ दो वक्त की सूखी रोटी दी जाती थी। कुछ दिन बाद इस शिक्षक ने घर के काम के साथ ही साथ अन्य बाहर के काम भी कराने शुरु कर दिये। इस पर राजगुरु ने ये काम छोड़ दिया। बनारस में रहते हुये इन्होंने जीवन के एक कड़वे सत्य का स्वंय अनुभव किया कि चाहे कुछ भी हो दरिद्रता (गरीबी) मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप हैं। इतनी विकट परिस्थितियों के बाद भी ये अपने घर पूना वापस नहीं गये।

क्रान्तिकारी दल से सम्पर्क

राजगुरु ने अपना जीवन-यापन करने के लिये प्राइमरी स्कूल में व्यायाम प्रशिक्षक की नौकरी कर ली। पाठशाला में ये विद्यार्थियों को स्वस्थ्य रहने के तरीकों को बताते हुये कुछ योग क्रियाओं को भी कराते थे। ये कुछ समय के लिये अखाड़ों में जाकर कुश्ती भी करते थे। राजगुरु देखने में इकहरे बदन के थे और व्यायाम करते रहने के साथ ही कुश्ती करने से भी इनकी शारीरिक बनावट में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया था। किन्तु 20 साल की कम उम्र में ही इनके चहरे पर गम्भीरता, प्रौढ़ता और कठोरता स्पष्ट होने लगी थी। इसी पाठशाला में इनकी मुलाकात गोरखपुर से निकलने वाली “स्वदेश” पत्रिका के सह-संस्थापक मुनीश्वर अवस्थी से हुई। इस समय काशी क्रान्तिकारियों का गढ़ था। मुनीश्वर अवस्थी के सम्पर्क से शिवराम क्रान्तिकारी पार्टी के सदस्य बन गये।

क्रान्तिकारी के रुप में पहला कार्य

1925 में काकोरी कांड के बाद क्रान्तिकारी दल बिखर गया था। पुनः पार्टी को स्थापित करने के लिये बचे हुये सदस्य संगठन को मजबूत करने के लिये अलग-अलग जाकर क्रान्तिकारी विचारधारा को मानने वाले नये-नये युवकों को अपने साथ जोड़ रहे थे। इसी समय राजगुरु की मुलाकात मुनीश्वर अवस्थी से हुई। अवस्थी के सम्पर्कों के माध्यम से ये क्रान्तिकारी दल से जुड़े। इस दल में इनकी मुलाकात श्रीराम बलवन्त सावरकर से हुई। इनके विचारों को देखते हुये पार्टी के सदस्यों ने इन्हें पार्टी के अन्य क्रान्तिकारी सदस्य शिव वर्मा (प्रभात पार्टी का नाम) के साथ मिलकर दिल्ली में एक देशद्रोही को गोली मारने का कार्य दिया गया। पार्टी की ओर से ऐसा आदेश मिलने पर ये बहुत खुश हुये कि पार्टी ने इन्हें भी कुछ करने लायक समझा और एक जिम्मेदारी दी।

पार्टी के आदेश के बाद राजगुरु कानपुर डी.ए.वी. कॉलेज में शिव वर्मा से मिले और पार्टी के प्रस्ताव के बारे में बताया। इस काम को करने के लिये इन्हें दो बन्दूकों की आवश्यकता थी लेकिन दोनों के पास केवल एक ही बन्दूक थी। अतः वर्मा दूसरी बन्दूक का प्रबन्ध करने में लग गये और राजगुरु बस पूरे दिन शिव के कमरे में रहते, खाना खाकर सो जाते थे। ये जीवन के विभिन्न उतार चढ़ावों से गुजरे थे। इस संघर्ष पूर्ण जीवन में ये बहुत बदल गये थे, लेकिन अपने सोने की आदत को नहीं बदल पाये। शिव वर्मा ने बहुत प्रयास किया लेकिन कानपुर से दूसरी पिस्तौल का प्रबंध करने में सफल नहीं हुये। अतः इन्होंने एक पिस्तौल से ही काम लेने का निर्णय किया और लगभग दो हफ्तों तक शिव वर्मा के साथ कानपुर रुकने के बाद ये दोनों दिल्ली के लिये रवाना हो गये।

दिल्ली पहुँचने के बाद राजगुरु और शिव एक धर्मशाला में रुके और बहुत दिन तक उस देशद्रोही विश्वासघाती साथी पर गुप्त रुप से नजर रखने लगे। इन्होंने इन दिनों में देखा कि वो व्यक्ति प्रतिदिन शाम 7-8 बजे के बीच घूमने के लिये जाता हैं। कई दिन तक उस पर नजर रखकर उसकी प्रत्येक गतिविधि को ध्यान से देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इसे मारने के लिये दो पिस्तौलों की आवश्यकता पड़ेगी।

शिव वर्मा राजगुरु को धर्मशाला में ही उनकी प्रतिक्षा करने को कह कर पिस्तौल का इन्तजाम करने के लिये लाहौर आ गये। यहाँ से नयी पिस्तौल की व्यवस्था करके तीसरे दिन जब ये दिल्ली आये तो 7 बज चुके थे। शिव को पूरा विश्वास था कि राजगुरु इन्हें तय स्थान पर ही मिलेंगें। अतः ये धर्मशाला न जाकर पिस्तौल लेकर सीधे उस सड़क के किनारे पहुँचे जहाँ घटना को अन्जाम देना था।

शिव वर्मा ने वहाँ पहुँच कर देखा कि उस स्थान पर पुलिस की एक-दो पुलिस की मोटर घूम रही थी। उस स्थान पर पुलिस को देखकर वर्मा को लगा कि शायद राजगुरु ने अकेले ही कार्य पूरा कर दिया। अगली सुबह प्रभात (शिव वर्मा का पार्टी का नाम) रेल से आगरा होते हुये कानपुर चले गये। लेकिन इन्हें बाद में समाचार पत्रों में खबर पढ़ने के बाद ज्ञात हुआ कि राजगुरु ने गलती से किसी और को देशद्रोही समझ कर मार दिया था।

हत्या के बाद फरारी

राजगुरु इस बात से पूरी तरह अनजान थे कि इन्होंने किसी गलत व्यक्ति को मार दिया है। गोलियाँ चलाने के बाद ये रेलवे लाइन के रास्ते मथुरा की तरफ फरार हो गये। चारों तरफ से पुलिस की सर्च लाईट की रोशनी और गोलियाँ इनके ऊपर आ रही थी। शिवराम पेट के बल लेटते हुये एक खेत में पहुँचे। दुर्भाग्य से उस खेत में पानी भरा हुआ था और इनके पास खेत में पड़े रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं था।

एक तरफ खेत में भरा हुआ ठंडा पानी दूसरी तरफ गस्त करती हुई पुलिस के पैरों की आवाज और सर्च लाइट के बीच-बीच में चलती हुई गोलियाँ; राजगुरु के पास इस पानी वाले खेत में पड़े रहने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। रात को लगभग 3 बजे जब पुलिस आसपास के खेतों में ढूँढ़ कर चली गयी तब ये ठंड से कपकपाते हुये कीचड़ से सने कपड़ों के साथ दो स्टेशनों को पार करते हुए मथुरा स्टेशन पहुँचे। मथुरा पहुँचकर यमुना में नहा कर रेत में कपड़े सुखाये।

राजगुरु बड़ी खुशी के साथ कानपुर पार्टी कार्यालय पहुँचे। इन्हें इस बात का पूरा सन्तोष था कि इन्होंने पार्टी के कार्य को पूरी निष्ठा के साथ खत्म किया है। कानपुर में जब शिवराम को ये ज्ञात हुआ कि इन्होंने गलत व्यक्ति को मार दिया है तो ये आत्म ग्लानि से भर गये। ये स्वंय को पार्टी का गुनहगार मानने लगे थे। इन्होंने शिव वर्मा से कहा, “प्रभात, मैं अपनी जल्दबाजी के कारण पार्टी का अपराधी हूँ। अब मैं पार्टी में कार्य करने लायक नहीं हूँ।”

“प्रभात, मैं अपनी जल्दबाजी के कारण पार्टी का अपराधी हूँ। अब मैं पार्टी में कार्य करने लायक नहीं हूँ।”

लेकिन पार्टी ने इन्हें बाहर नहीं निकाला और पार्टी के साथ कार्य करते रहने दिया। पार्टी में कार्य करते हुये ही इनकी मुलाकात भगत सिंह, सुखदेव और आजाद से हुई और जो बाद में इनके जान से भी प्यारे मित्र बन गये।

हिन्दूस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य के रूप में

बनारस में रहते हुये राजगुरु की मुलाकात क्रान्तिकारी दलों के सदस्यों से हुई जिनके सम्पर्क में आने के बाद ये पूरी तरह से हिन्दूस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन दल के सक्रिय सदस्य बन गये। इनका दल का नाम रघुनाथ था। राजगुरु निशाना बहुत अच्छा लगाते थे जिससे दल के अन्य सदस्य इन्हें निशानची (गनमैन) भी कहते थे। दल के सभी सदस्य घुल मिलकर रहते थे लेकिन दल के कुछ सदस्य ऐसे भी थे जिनके लिये समय आने पर ये अपनी जान भी दे सकते थे। पार्टी में इनके सबसे घनिष्ट साथी सदस्य आजाद, भगत सिंह, सुखदेव और जतिनदास थे और देशभक्ति के रास्ते में भगत सिंह को तो ये अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वन्दी मानते थे। राजगुरु पार्टी द्वारा किसी भी क्रान्तिकारी गतिविधि को निर्धारित किये जाने पर उस गतिविधि में भाग लेने के लिये सबसे आगे रहते थे।

पंजाब में साइमन कमीशन और लाला लाजपत राय की हत्या

पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष को दबाकर भारत पर अपनी सत्ता को कायम रखने के लिये ब्रिटिश सरकार अनेक दमनकारी प्रस्तावों को पारित करके भारतीयों की स्थिति को कमजोर करना चाहती थी। अपनी एक और दमनकारी नीति के तहत अंग्रेजों ने साइमन कमीशन को नियुक्त किया, जिसका पूरे भारत वर्ष ने विरोध किया।

पंजाब में भी इस कमीशन का विरोध लाला लाजपत राय के नेतृत्व में हुआ। जब पुलिस को लगा कि वो प्रदर्शनकारियों को रोकने में कम सक्षम हैं तो सुप्रीटेंडेट ऑफ पुलिस मि.स्कॉट ने भीड़ पर लाठी चलाने का आदेश दिया। स्कॉट के आदेश पर पुलिस अफसर जे.पी.सांडर्स ने लाठी चार्ज में राष्ट्रवादी नेता लाला लाजपत राय को निशाना बनाया और उन पर लाठी से 5-6 प्रहार किये। पुलिस के इस अमानवीयता पूर्ण कार्य को देखते हुये लाला जी ने प्रदर्शन को स्थगित करने का आदेश दिया। इस लाठी चार्ज में राय जी को बहुत ज्यादा चोट लग गयी जिससे वो ठीक न हो सके और 17 नवम्बर 1928 को उनकी मृत्यु हो गयी।

जे.पी.सांडर्स की हत्या

लाला लाजपत राय पूरे भारत में बहुत सम्मानित नेता थे। उनके एक आह्वान पर पूरा राष्ट्र उनके पीछे खड़ा हो जाता था, ऐसे राष्ट्रवादी नेता की हत्या पर सभी भारतीय ब्रिटिश सरकार से और अधिक घृणा करने लगे। अपने नेता की मृत्यु का बदला लेने के लिये एच.एस.आर.ए. के सभी सदस्यों ने मिलकर पुलिस अधिक्षक स्कॉट को मारने की योजना बनायी। इस योजना को कार्यान्वित करने का कार्यभार आजाद, भगत सिंह, राजगुरु और जयगोपाल पर था। पं. चन्द्रशेखर आजाद ने पूरी योजना का निर्माण किया। उन्होंने जयगोपाल को स्कॉट पर नजर रखने के लिये मॉल रोड सड़क पर नियुक्त किया। साथ ही ये निश्चय किया कि स्कॉट के आने पर जयगोपाल, राजगुरु और भगत सिंह को संकेत कर देंगे, संकेत मिलते ही राजगुरु स्कॉट पर गोली चलायेंगे और यदि राजगुरु से कहीं चूक हो जाती हैं तो भगत सिंह गोली चलाकर उसे मार देंगें। वहीं आजाद इन दोनों को वहाँ से बाहर निकालने का कार्य करेंगे।

17 दिसम्बर 1928 को शाम 7 बजे योजना के अनुसार जयगोपाल मॉल रोड चौकी के सामने अपनी साइकिल को ठीक करने का बहाना करते हुये बैठ गये और स्कॉट का इंतजार करने लगे। जयगोपाल से कुछ ही दूरी पर भगत सिंह और राजगुरु निशाना साधे खड़े थे। जैसे ही जयगोपाल ने पुलिस अधिकारी सांडर्स को आते हुये देखा उसने सांडर्स को गलती से स्कॉट समझकर राजगुरु को इशारा किया। इशारा मिलते ही राजगुरु ने एक गोली चलायी जो सीधे सांडर्स को लगी और वो एक ही गोली में मोटर से गिर गया। उसकी मृत्यु को सुनिश्चित करने के लिये भगत ने एक के बाद एक 5-6 गोलियाँ चलायी।

गोलियों की आवाज सुनकर चौकी के अन्दर से इंस्पेक्टर फर्न अपने एक हवलदार चमन लाल के साथ बाहर आये। फर्न को स्वंय से दूर रखने के लिये भगत सिंह ने उस पर एक गोली चलाई और वो हड़बड़ाहट में गिर गया। जब ये सब क्रान्तिकारी सांडर्स को गोली मारकर भाग रहे थे तो हवलदार चमन सिंह ने इनका पीछा किया। आजाद की चेतावनी देने के बावजूद जब वो वापस नहीं लौटा तो आजाद को मजबूरी में उस पर गोली चलानी पड़ी। दूसरी ओर से आजाद ने दोनों को वहाँ से चलने के लिये आदेश दिया और स्वंय दोनों को पीछे से सुरक्षा प्रदान करते हुये डी.ए.वी. कॉलेज से होते हुये फरार हो गये।

सांडर्स हत्याकांड के बाद लाहौर से फरारी

उसी रात सांडर्स को मारकर लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने की सूचना के साथ पूरे शहर में पर्चें छपवाकर लगवा दिये गये। इस घटना के बाद ब्रिटिश सरकार में खलबली मच गयी। वो चारों तरफ क्रान्तिकारियों को पकड़ने में लग गयी लेकिन इस हत्याकांड का खुलासा नहीं कर पायी न ही किसी की कोई गिरफ्तारी ही हो पायी। लाहौर में चारों ओर पुलिस ने अपने गुप्तचरों को लगा रखा था। ऐसी स्थिति में आजाद, भगत और राजगुरु का लाहौर से निकलना मुश्किल था क्योंकि इंस्पेक्टर फर्न ने घटना स्थल पर भगत सिंह को पहचान लिया था कि इस षड़यन्त्र में एक सरदार भी शामिल था। इसके अतिरिक्त एक-दो अन्य पुलिस कर्मियों ने भी भगत को देख लिया था अतः भगत के वर्तमान रुप में लाहौर से फरार होना नामुमकिन था।

चारों तरफ से रास्ता घिरा देखकर सुखदेव ने एक योजना बनायी और दुर्गा भाभी (भगवतीचरण बोहरा की पत्नी) से सम्पर्क किया। इन सबने मिलकर भगत को एक अंग्रेज का रुप दिया और दुर्गा भाभी को उनकी पत्नी बनाकर लाहौर से बाहर जाने की योजना बनायी। इस कार्य में राजगुरु भगत सिंह और दुर्गा भाभी के अर्दली (नौकर) बनकर लाहौर से कानपुर जाने वाली गाड़ी में बैठे। राजगुरु नौकर बनकर गाड़ी के तीसरे दर्जें में बैठकर गये और आजाद एक साधु के रुप में उसी गाड़ी में बैठ गये। राजगुरु और चन्द्रशेखर आजाद रास्ते में ही उतर गये वहीं भगत सिंह दुर्गा भाभी के साथ कानपुर चले गये। बाद में राजगुरु नागपुर के लिये चले गये। नागपुर में शिवराम आर.एस.एस. के कार्यकर्ता डॉ. के.बी.हेडगेवार से मिले और कुछ दिन के लिये इनके पास छुपकर रहे और इसके बाद ये पूना चले गये।

राजगुरु का व्यक्तित्व

शिवराम राजगुरु सच्चे, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और देश के लिये खुद को न्यौछावर करने के लिये तैयार रहने वाले व्यक्ति थे। ये 15 वर्ष की आयु में ही परिवार को छोड़कर बनारस आ गये थे। यहीं इनकी मुलाकात क्रान्तिकारी आजाद से हुई। आजाद से मिलकर इन्हें ऐसा लगा कि जिस रास्ते पर चलकर ये अपना सारा जीवन देश सेवा के लिये समर्पित कर सकते हैं वो रास्ता खुद ही इनके पास आ गया हो।

लेकिन चन्द्रशेखर आजाद जितने चुस्त और सतर्क थे राजगुरु उतने ही अधिक आलसी और लापरवाह थे। राजगुरु में केवल एक ही अवगुण था कि वो कुभंकर्ण की तरह सोते थे। इन्हें जब भी जहाँ भी मौका मिलता वो उसी जगह सो जाते थे। जब दल के सदस्य आगरा में क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिये बम बनाने का कार्य कर रहे थे तो उस दौरान इन सभी सदस्यों के बीच खूब मस्ती-मजाक चलता था। ऐसे ही माहौल में एक दिन एक दूसरे की गिरफ्तारी को लेकर मजाक हो रहा था।

सभी इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि यदि पुलिस की रेड पड़ी तो कौन कैसे पकड़ा जायेगा। पार्टी के सभी सदस्यों में प्रचलित था कि भगत सिंह कोई सिनेमा देखते हुये पकड़े जायेगें, बटुकेश्वर दत्त चांदनी रात को निहारते हुये, पंडित जी किसी का शिकार करते हुये और रघुनाथ (राजगुरु) सोते हुये। क्रान्तिकारी दल में शामिल होने के बाद राजगुरु के व्यक्तित्व में बहुत से बदलाव आये लेकिन वो अपने सोने की आदत को नहीं बदल पाये थे। अपनी इसी आदत के कारण वो कई बार संकट में पड़ने से बाल-बाल बचे थे। अन्त में अपनी इसी लापरावाही के कारण ये गिरफ्तार भी किये गये।

भगत सिंह से प्रतिद्वंदिता

राजगुरु भले ही कुम्भकर्ण की तरह सोते थे लेकिन वो देशहित के लिये खुद को न्यौछावर करने के लिये हमेशा तैयार रहते थे। देशभक्ति के रास्ते में ये भगत सिंह को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानते थे। पार्टी में जब भी त्याग और बलिदान की बात आती तो वो खुद उस कार्य को करने के लिये जिद्द करते थे। सांडर्स की हत्या के समय राजगुरु ने सबसे पहली गोली चलाई ताकि ये भगत से पीछे न रहे। राजगुरु ने असेम्बली बम कांड में जाने के लिये बहुत जिद्द की और केन्द्रीय समिति के सामने बम फेंकने के लिये खुद का नाम देने के लिये बार-बार सिफ़ारिश की। राजगुरु की देशभक्ति और सत्य निष्ठा पर दल का कोई भी सदस्य बिल्कुल भी सन्देह नहीं कर सकता था। समिति ने पहले भगत सिंह के साथ जयदेव और राजगुरु को भेजने का निर्णय किया, लेकिन बाद में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के नाम पर सहमति बनी।

राजगुरु बम फेंकने के लिये न भेजे जाने से बहुत नाराज हुये। जब आजाद ने इन्हें ये कहकर समझाया कि गिरफ्तारी के बाद भगत को अंग्रेजी में पुलिस को बयान देना होगा और तुम्हें अंग्रेजी आती नहीं है तो तुम बयान कैसे दोगे। इस पर राजगुरु ने कहा, “आप रणजीत (भगत सिंह) से अंग्रेजी में एक भाषण तैयार करा लें, मैं उसे कॉमा और फुलस्टॉप के साथ सुना दूँगा और अगर कोई गलती हो तो मुझे मत भेजना।”

पूना में गिरफ्तारी

आजाद ने राजगुरु को बहुत समझाया और उन्हें कुछ समय के लिये पूना जाकर रहने के लिये कहा। राजगुरु उदास मन से पूना चले गये। असेम्बली बम कांड में बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। पूना जाकर इन्होंने नया क्रान्तिकिरी दल तैयार करने का निश्चय किया। ये जिस किसी से भी मिलते उससे ही अपने द्वारा सांडर्स को गोली मारने की घटना का वर्णन करते। अपनी लापरवाही के कारण और सब पर जल्दी से विश्वास कर लेने के कारण एक सी.आई.डी. अफसर शरद केसकर से इनकी मुलाकात हुई। उसने इन्हें विश्वास में लेकर मित्रता बढ़ाई और इन्होंने उस पर विश्वास करके सारी बाते बता दी। केसकर की सूचना पर राजगुरु को 30 सितम्बर 1929 में गिरफ्तार कर लिया गया।

लाहौर षड़यन्त्र केस और फाँसी की सजा

राजगुरु को भी गिरफ्तार करके पुलिस ने भगत सिंह और सुखदेव के साथ लाहौर षड़यन्त्र केस में शामिल करके केस चलाया। इन्हें सुखदेव और भगत सिंह के साथ 24 मार्च 1931 में फाँसी की सजा दे दी गयी। लेकिन इनकी बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत होकर अंग्रेज सरकार ने एक दिन पहले 23 मार्च को इन तीनों को सूली पर चढ़ा दिया। भारत माँ के ये सपूत मरकर भी अमर हो गये।

राजगुरु के बारे में मुख्य तथ्य

  • 24 अगस्त 1908 को महाराष्ट्र के खेड़ा (पूना) नामक स्थान पर जन्म।
  • जलियांवाला बाग हत्या कांड के बाद देश सेवा के लिये अपने आप को समर्पित करने का संकल्प।
  • 1923 को 15 वर्ष की अल्प आयु में घर का त्याग।
  • बनारस में रहकर संस्कृत और लघु कौमुदगी के सिद्धान्तों का अध्ययन।
  • 1924 में क्रान्तकारी दल से सम्पर्क और एच.एस.आर.ए. के कार्यकारी सदस्य बनें।
  • 17 दिसम्बर 1928 को लाला लाजपत राय पर लाठी से प्रहार करने वाले जे.पी.सांडर्स की गोली मारकर हत्या।
  • 20 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह के नौकर के रुप में लाहैर से फरारी।
  • 30 सितम्बर 1929 को पूना में गिरफ्तारी।
  • 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह और सुखदेव के साथ फाँसी की सजा।
  • 23 मार्च 1931 को फाँसी पर चढ़कर शहीद हो गये।
  • इनकी मृत्यु के बाद भारत सरकार ने इनके जन्म स्थान खेड़ा का नाम बदलकर राजगुरु नगर रख दिया गया हैं।
  • 24 अगस्त 2008 को प्रसिद्ध लेखक अजय वर्मा (जज) ने राजगुरु के जन्म की 100वीं वर्षगाँठ पर “अजेय क्रान्तिकारी राजगुरु” नाम से किताब लिखकर प्रकाशित की।