जिस आजादी का आज हम सब लुत्फ उठा रहें हैं, उसकी झलक भर पाने के लिए न जाने कितने लोग मौत की गोद में सो गएं। इस आजादी के महल की दीवारें आज भी उन वीरों के नाम का जयघोष करती हैं, जिनके बलिदानों पर इसकी नींव टिकी हुई है। ऐसे बहुत से स्वतंत्रता सेनानी हैं जिनके नाम को इतिहास के पन्नों ने उजागर करने में असमर्थता दिखाई है, लेकिन आज हमारी इस छोटी सी कोशिश से आप ऐसे कुछ विभूतियों के बारें में जानेंगे जो इस देश के लिए बड़ी ही खामोशी के साथ वो कर गए जो शायद ढोल नगाड़े पीट कर भी कोई नहीं कर पाता।
आजादी के संघर्षों में गुम हुए स्वतंत्रता सेनानी पर दीर्घ निबंध (Long Essay on Anonymous Freedom Fighters in Freedom Struggle in Hindi, Azadi ke Sangharshon mein Gum hue Swatantrata Senani par Nibandh Hindi mein)
आजादी के संघर्षों में गुम हुए स्वतंत्रता सेनानी पर निबंध – 1 (250-300 शब्द)
प्रस्तावना
वर्षों के संघर्ष के बाद हमने स्वतंत्रता पाई। कई स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राण गवां दिए। हमें कुछ गिने चुने सेनानी ही याद आते है। कुछ ऐसे वीर हुए जिन्होंने भारत माँ के लिए अपने प्राण गवां दिए, मगर वे गुमनामी के अँधेरे में कही खो गए।
भारत के कुछ गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी
भारत के लिए शहीद होने वाले कुछ गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों का परिचय-
खुदीराम बोस
खुदीराम बोस सबसे कम उम्र में फांसी पर चढ़ने वाले क्रांतिकारी थे। खुदीराम बोस ने प्रफुल्ल चाकी के साथ मिलकर एक अंग्रेज अधिकारी की बग्घी में बम फेंका था, उस समय प्रफुल्ल चाकी खुद को गोली मारकर शहीद हो गए परन्तु खुदीराम पकडे गए और उन्हें फांसी दी गयी।
बिरसा मुंडा
बिरसा मुंडा एक युवा आदिवासी नेता थे। बिरसा मुंडा को आदिवासियों का मसीहा कहा जाता है, उन्होंने मिशनरी धर्म प्रचारको का विरोध किया और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाई।
कल्पना दत्त
कल्पना दत्त एक स्वतंत्रता सेनानी थी उन्होंने इंडियन रिपब्लिक आर्मी से जुड़कर अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई। 1930 में उनके एक दल ने चटगांव का शस्त्रागार लूटा। वह सूर्यसेन की क्रांतिकारी समूह का हिस्सा थी, जो संघर्ष कर रहा था।
निष्कर्ष
हमें आजादी की कीमत को समझना चाहिए। जब वीरों ने अपने प्राण गवाएं, तब जाकर हमें आज़ादी मिली। हमें अपने वीर स्वतंत्रता सेनानियों को याद करना चाहिए और उन पर गर्व करना चाहिए। उनकी वीरता को याद करना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देना होगा।
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दीर्घ निबंध – 1 (250-300 शब्द)
प्रस्तावना
भारत की मिट्टी में जन्में बहुत से देश प्रेमियों ने हँसते-हँसते अपनी जान देश के नाम पर न्यौछावर कर दी। भारत की मिट्टी ने ऐसे-ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया है कि उनकी जीवन गाथा महज़ कहानी नहीं बल्कि अपने आप में पूरा का पूरा दौर है। उन वीर सपूतों का देश के प्रति असीम प्रेम हमें आज भी देश के लिए मर मिटने को प्रेरित करता है। उनकी देश के लिए दीवानगी ही हमें उनकी देशभक्ति का कायल बनाती है।
भारत के कुछ गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी (Some Anonymous Freedom Fighters)
यहां हम कुछ ऐसे महान स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में पढ़ेंगे जिनका नाम आजादी की उन लड़ाइयों में कहीं गुम सा गया है-
- तारा रानी श्रीवास्तव (Tara Rani Srivastava)
बिहार की राजधानी पटना के सारण जिले में जन्मी तारा रानी श्रीवास्तव का विवाह बहुत ही कम उम्र में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी फूलेंदू बाबू से हो गई थी। 12 अगस्त 1942 को फूलेंदू बाबू अपने लोगों के साथ सिवान पुलिस थाने की तरफ निकल पड़े। तारा रानी फूलेंदू बाबू के साथ-साथ सबका नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ रही थीं।
लोगों का जनसैलाब आता देख पुलिस ने उनपर लठियां बरसानी शुरू कर दी उसके बाद भी जब भीड़ नहीं रुकी तो पुलिस ने गोलियां चलाई और फूलेंदू बाबू गोली लगने से घायल हो गए। उस समय भी तारा रानी को देश की आजादी अपने पति के जान से ज्यादा प्यारी लगी और वो झण्डा लेकर पुलिस स्टेशन कि तरफ चल पड़ीं। सिवान पुलिस स्टेशन पर झण्डा फहराने के बाद जब वो अपने जख्मी पति के पास आईं तो वो उन्हें खो चुकी थीं।
- बिरसा मुंडा (Birsa Munda)
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूँटी जिले के उलिहातु गाँव में हुआ था। 1894 में इन्होनें कर माफ़ी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन किए जिसके कारण 1895 में इन्हें हजारीबाग कारागार में दो वर्ष के लिए रखा गया। मुंडा और अंग्रेजों के बीच 1897 से 1900 के बीच बहुत से युद्ध हुए। 1898 में मुंडा और अंग्रेजों के बीच एक युद्ध हुआ जिसमें बिरसा जीत गए थे लेकिन बाद में अंग्रेजों ने बहुत से आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था। 3 मार्च 1900 को अंग्रेजों ने बिरसा को भी गिरफ्तार कर लिया और 9 जून 1900 को जहर देकर मार दिया गया।
- लक्ष्मी सहगल (Lakshmi Sahgal)
लक्ष्मी सहगल का जन्म 24 अक्टूबर 1914 ई. में एक तमिल परिवार में हुआ था। इन्होंने महात्मा गाँधी के द्वारा चलाए गए विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आंदोलन में हिस्सा लिया था। द्वितीय विश्व युद्ध के समय ये सुभाष चंद्र बोस की ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ में शामिल हो गई थीं। आजाद हिन्द फ़ौज की रानी रेजिमेंट में उनकी सक्रियता और निष्ठा के लिए उन्हें कर्नल का दर्ज मिला था।
द्वितीय विश्व युद्ध में आजाद हिन्द फ़ौज की हार के बाद इन्हें 4 मार्च 1946 में गिरफ्तार कर लिया गया था। कुछ समय बाद जेल से रिहा होने के बाद इन्होंने अपना जीवन लोगों की सेवा में लगा दिया। 23 जुलाई 2012 को दिल का दौरा पड़ने की वजह से इनकी मृत्यु हो गई।
- बिनोय बादल दिनेश की तिकड़ी (Binoy Badal Dinesh Trio)
बिनोय बसु, बादल गुप्ता और दिनेश गुप्ता ये उन तीन वीरों के नाम हैं जिन्होंने ब्रिटिश अड्डे में घुस कर अंग्रेजों को मारा था। उन दिनों बंगाल के सभी जिलों का ब्रिटिश मुखिया एन. एस. सिम्पसन था। उसने कैदियों पर बहुत अत्याचार किया था और वह भारतीयों से बहुत नफरत भी करता था। सिम्पसन का जुल्म खत्म करने के लिए इन तीन भारत माँ के वीरों ने एक योजना बनाई। और उस योजना के तहत इन तीनों ने राईटर्स बिल्डिंग मे घुसकर हमला करने का तय किया था।
योजना के अनुसार ये लोग उस बिल्डिंग मे घुसे और गोलियां बरसाना शुरू कर दिया जिसमें सिम्पसन सहित कई और अंग्रेजी अफसर मारे गए थे। हमले के बाद जब ये सब वहां से भागने के लिए बिल्डिंग के बाहर निकले तो बाहर खड़ी प्रशासन ने तीनों को पकड़ लिया। पकड़े जाने पर बादल ने पोटैशियम साईनाइड खा लिया और बिनोय तथा बादल ने खुद को गोली मार ली।
- मातंगिनी हाजरा (Matangini Hazra)
पूर्वी बंगाल में जन्मी मातंगिनी हाजरा का जन्म 19 अक्टूबर 1870 ई. में हुआ था। गरीबी के चलते उनका विवाह 12 साल की अवस्था में 62 वर्षीय विधुर के साथ हो गया था। पति के मरने के बाद वो एक झोपड़ी में रहने लगी। और गांव वालों की सेवा में अपना समय व्यतीत करती थी। 1932 में एक बार जब गाँधी जी के नेतृत्व में चलाए जा रहे स्वाधीनता आंदोलन का जुलूस मातंगिनी के घर के पास से गुजरा तो उन्होंने बंगाली रीति रिवाजों के साथ शंख ध्वनि से जुलूस का स्वागत किया और जुलूस के साथ साथ चल पड़ीं।
उनकी देश के लिए प्रेम उन्हें वृद्ध अवस्था में जेल तक पहुंचा दिया। मातंगिनी 17 जनवरी 1933 में करबंदी आंदोलन में एंडरसन तामलुक के विरोध में काला झण्डा लेकर नारा लगाते हुए दरबार तक पहुंच गई और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करके 6 महीने के लिए मुर्शिदाबाद जेल में डाल दिया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी मातंगिनी ने प्रमुख भूमिका निभाई थीं।
मातंगिनी ने 29 सितंबर को होने वाली रैली के लिए गांव-गांव घूमकर 5000 लोगों को तैयार किया था। तय योजना के अनुसार सभी लोग सरकारी डाक बंगले पर पहुंचे, लोगों की भीड़ देख पुलिस ने गोलियां बरसानी शुरू कर दी जिसमें एक गोली मांतगिनी के बाएं हाथ में लग गई उन्होंने झंडे को गीरने से पहले ही दूसरे हाथ में ले लिया लेकिन तभी दूसरी गोली उनके दाहिने हाथ में तथा फिर तीसरी गोली उनके माथे में लगी और मातंगिनी हमेशा हमेशा के लिए भारत माँ की गोद में सो गई।
- सेनापति बापट (Senapati Bapat)
बापट का पूरा नाम पांडुरंग महादेव बापट है। बापट का जन्म 12 नवंबर 1880 में पारनेर महाराष्ट्र में हुआ था। बापट ने उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त की थी और अपने ज्ञान का परचम लंदन तक लहरा चुके थें। बेटे की प्राप्ति पर बापट ने 1 नवंबर 1914 को पहला भोजन हरिजनों को कराने का साहस किया था। इन्होंने काले पानी और अन्य सजाओं को मिलाकर अपने कार्यकारी जीवन का लगभग आधा समय जेल में ही बिताया। 15 अगस्त 1947 को आजादी के दिन बापट को पुणे शहर में तिरंगा फहराने का गौरव प्राप्त हुआ। 28 नवंबर 1967 को सेनापति बापट की मृत्यु हो गई।
- मौलवी लियाकत अली (Maulvi Liaquat Ali)
मौलवी लियाकत अली का जन्म इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने सत्ता अपने हाथ में आते ही अपने करीबियों को तहसीलों में नियुक्त करके अपनी ताकत बढ़ाने लगे। लियाकत अली किले पर पूरी तरह से अपना अधिकार जमाना चाहते थे उन्होंने सारी तैयारियां भी कर ली थी परंतु उसी समय 6 जून को कर्नल नील अपनी विशाल सेना लेकर पहुंच गया। लियाकत अली की सेना ने किले पर हमला किया लेकिन सिर्फ़ हथियार लूटने में ही कामयाब रहे। कर्नल नील की विशाल सेना के आगे लियाकत अली को पीछे हटना पड़ा। कर्नल नील ने 17 जून को फिर खुसरोबग पर आक्रमण कर दिया, काफी लंबी युद्ध के बाद लियाकत अली को भागना पड़ा।
लियाकत अली अपने सैनिकों को लेकर कानपुर की तरफ रवाना हो गया। फतेहपुर पहुंचते ही उनका सामना प्रयाग की ओर बढ़ती कर्नल नील की सेना से हुई, जहां लियाकत अली की सेना ने डतकर मुकाबला किया। कानपुर में विद्रोह का नेतृत्व रहे नाना साहब के साथ मिलकर लियाकत अली ने जोरदार युद्ध लड़ा परंतु हार का सामना करना पड़ा। कानपुर से किसी तरह छिपते-छिपाते लियाकत अली मुंबई पहुंच गए जहां वो रूप बदल कर रहने लगे। लेकिन 14 साल बाद 1871 में एक मुखबिर ने उनको अंग्रेजों को सौंप दिया। 17 मार्च 1881 में उनकी मृत्यु कालापानी की सजा काटते हुए हो गई थी।
निष्कर्ष
आज भले ही आजादी को सालों बीत गए हो, लेकिन हमारा यह कर्तव्य है कि हम उन सभी महान आत्माओं के बारे में जाने जो इस देश के लिए खुद को कुर्बान कर दिए। हमें उनसे सीखना चाहिए कि जीवन में कोई भी काम प्रसिद्धि या लोकप्रियता के लिए नहीं बल्कि उस कार्य को सफल बनाने के लिए करना चाहिए। ऐसे बहुत से नाम हैं जिनके बारे में हमें जानना उतना ही जरूरी है जितना कि हम गाँधी, भगत सिंह या फिर नेहरू के बारे में जानना जरूरी समझते हैं।
FAQs: अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
उत्तर – मंगल पाण्डेय ने 29 मार्च 1857 को सबसे पहले अंग्रेजों के खिलाफ़ विद्रोह किया था।
उत्तर – उद्धम सिंह ने 13 मार्च 1940 में जनरल डायर की गोली मार कर हत्या कर दी थी।
उत्तर – 1943 में जापान की सहायता से टोक्यो में रासबिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज का गठन किया था।
उत्तर – 1857 की क्रांति को भारत का सबसे लंबा आंदोलन कहा जाता है क्योंकि ये लगभग दो वर्षों तक चल था।
उत्तर – भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का आखिरी सबसे बड़ा आंदोलन था।