बाल गंगाधर तिलक (23 जुलाई 1856 – 1 अगस्त 1920)
बाल गंगाधर तिलक वो व्यक्ति थे जिसने देश की गुलामी को बहुत विस्तृत रुप से देखा था। इनके जन्म के एक बर्ष बाद ही अंग्रेजों के खिलाफ भारत को आजाद कराने के लिये 1857 की पहली क्रान्ति हुई थी। गंगाधर तिलक एक समस्या के अनेक पहलुओं पर विचार करते और फिर उस समस्या से निकलने का उपाय खाजते थे। बाल गंगाधर ने भारत की गुलामी पर सभी आयामों से सोचा, इसके बाद अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति बनाकर उन्हीं की भाषा में करारा जबाव दिया। बाल गंगाधर तिलक महान देशभक्त, कांग्रेस की उग्र विचारधारा के प्रवर्तक, महान लेखक, चिन्तक, विचारक, समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी थे।
भारतीयों की दशा में सुधार करने और लोगों को जागरुक करने के लिये इन्होंने एक ओर तो पत्रिकाओं का प्रकाशन किया वहीं दूसरी ओर देशवासियों को शिक्षित करने के लिये स्वंय से शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की साथ ही देशवासियों को एकता के सूत्र में बाँधने के लिये ‘गणेशोत्सव’ और ‘शिवाजी’ समारोह जैसे सामाजिक कार्यक्रमों को शुरु किया। गंगाधर तिलक ने अंग्रेजों पर तीनों ओर से मोर्चा लगा कर अंग्रेजों की नाक में दम करके रख दिया। अपने जीवन की आखिरी सांस तक ये अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते रहे।
मुख्य तथ्य
नाम – केशव, बाल (बलवंत)
उपाधी – लोकमान्य
पूरा नाम – लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
जन्म – 23 जुलाई 1856
जन्म स्थान – चिकल गाँव रत्नागिरी, महाराष्ट्र
माता-पिता – पार्वती बाई गंगाधर, गंगाधर रामचन्द्र पंत
पत्नी – सत्यभामा (तापी)
शिक्षा – बी.ए., एल.एल.बी.
व्यवसाय – ‘मराठा’ और ‘केसरी’ पत्रिका के संस्थापक
बेटे – रामचन्द्र और श्रीधर
बेटियाँ – कृष्णा बाई, दुर्गा बाई और मथू बाई
संगठन – भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
उपलब्धि – इंडियन होम रुल की स्थापना, भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के जनक, डेक्कन एजुकेशन सोसायटी के संस्थापक
राष्ट्रीयता – भारतीय
मृत्यु – 1 अगस्त 1920
मृत्यु स्थान – बंबई (मुम्बई), महाराष्ट्र
बाल गंगाधर तिलक की जीवनी (जीवन परिचय)
जन्म व बाल्यकाल
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के जनक, स्वराज्य की माँग रखने वाले और कांग्रेस की उग्र विचारधारा के समर्थक बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को रत्नागिरि जिले के चिकल गाँव तालुका में हुआ था। इनके पिता का नाम गंगाधर रामचन्द्र पंत व माता का नाम पार्वती बाई गंगाधर था। कहते हैं कि इनकी माता पार्वती बाई ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से पूरे अश्विन महीने (हिन्दी कलैण्डर का महीना) में निर्जला व्रत रखकर सूर्य की उपासना की थी, इसके बाद तिलक का जन्म हुआ था। इनके जन्म के समय इनकी माता बहुत दुर्बल हो गयी थी। जन्म के काफी समय बाद ये दोनों स्वस्थ्य हुये।
बाल गंगाधर तिलक के बचपन का नाम केशव था और यही नाम इनके दादा जी (रामचन्द्र पंत) के पिता का भी था इसलिये परिवार में सब इन्हें बलवंत या बाल कहते थे, अतः इनका नाम बाल गंगाधर पड़ा। इनका बाल्यकाल रत्नागिरि में व्यतीत हुआ। बचपन में इन्हें कहानी सुनने का बहुत शौक था इसलिये जब भी समय मिलता ये अपने दादाजी के पास चले जाते और उनसे कहानी सुनते। दादाजी इन्हें रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, गुरु नानक, नानक साहब आदि देशभक्तों और क्रान्तिकारियों की कहानी सुनाते थे। तिलक बड़े ध्यान से उनकी कहानियों को सुनकर प्रेरणा लेते। इन्हें अपने दादाजी से ही बहुत छोटी सी उम्र में भारतीय संस्कृति और सभ्यता की सीख मिली। इस तरह प्रारम्भ में ही इनके विचारों का रुख क्रान्तिकारी हो गया और ये अंग्रेजों व अंग्रेजी शासन से घृणा करने लगे।
पारिवारिक परिवेश और प्रारम्भिक शिक्षा
तिलक का जन्म एक सुसंस्कृत, मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका परिवार चितापावन वंश से संबंधित था जो सभी धार्मिक नियमों और परंपराओं का कट्टरता से पालन करते थे। इनके पिता, गंगाधर रामचन्द्न पंत रत्नागिरि में सहायक अध्यापक थे। इनके पिता अपने समय के लोकप्रिय शिक्षक थे। गंगाधर रामचन्द्न पंत ने त्रिकोणमिति और व्याकरण पर अनेक पुस्तकें लिखी जो प्रकाशित भी हुई।
इनकी माता, पार्वती बाई धार्मिक विचारों वाली महिला थी। इनके दादा जी स्वंय महा-विद्वान थे। उन्होंने बाल को बचपन में भारतीय संस्कृति, सभ्यता, परम्पराओं और देशभक्ति की शिक्षा दी। अपने परिवार से बाल्यकाल में मिले संस्कारों की छाप तिलक के भावी जीवन में साफ दिखाई पड़ती हैं।
तिलक के पिता ने घर पर ही इन्हें संस्कृत का अध्ययन कराया। जब बाल तीन साल के थे तब से ये प्रतिदिन संस्कृत का श्लोक याद करके 1 पाई रिश्वत के रुप में लेते थे। पाँच वर्ष के होने तक इन्होंने बहुत कुछ सीख लिया था। इन्हें 1861 में प्रारम्भिक शिक्षा के लिये रत्नागिरि की मराठी पाठशाला में भेजा गया।
इनके पिता ने इन्हें शुरु से ही आत्मनिर्भर रहने के साथ ही साथ धैर्य और सहनशीलता की शिक्षा भी दी। बाल्यकाल में परिवार से मिली शिक्षाओं के कारण जीवन के हर मोड़ पर इन्होंने धैर्यपूर्वक कार्य किया। जिसने इनके चरित्र को और भी अधिक उज्जवल कर दिया और इन्हें लोकमान्य के नाम से जाना जाने लगा।
पूना में बाल गंगाधर तिलक
1866 में गंगाधर रामचन्द्र पंत (तिलक के पिता) का तबादला पूना हो जाने के कारण तिलक परिवार के साथ पूना आ गये। इस समय इनकी उम्र 10 वर्ष की थी। इनके पूना आने पर इनके दादा जी सन्यास लेकर काशी चले गये, जिनसे इनकी मुलाकात फिर कभी नहीं हुई। पूना में इन्हें आगे की पढ़ाई के लिये एंग्लों वर्नाक्यूलर स्कूल में भर्ती कराया। यहाँ आने के बाद गंगाधर तिलक का एक नया ही रुप समाने आया। 1866 में पूना स्कूल में पढ़ते हुये तिलक ने 2 सालों में 3 श्रेणियों को पूरा किया था।
यहाँ आने के कुछ ही महीने बाद इनकी माँ की मृत्यु हो गयी। 10 साल की छोटी सी उम्र में ही इनके सर से माँ का ममता भरा हाथ उठ गया। नन्हें तिलक को उनकी चाची ने अपने ममता भरे आँचल में ढक लिया और इन्हें माँ का प्यार और स्नेह दिया।
पूना के विद्यालय में बाल गंगाधर तिलक
पूना के स्कूल में पढ़ते समय तिलक के व्यक्तित्व का एक नया ही रुप सामने आया। इनके विद्यार्थी जीवन की ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जिन्होंने बचपन में ही ये स्पष्ट कर दिया था कि ये बालक न तो कभी अपने ऊपर हो रहे अन्याय सहेगा और न ही किसी और के ऊपर हो रहे अन्याय को चुपचाप देखेगा। इन घटनाओं ने तिलक को न्यायप्रियता, निर्भीक, जिद्दी स्वभाव, सत्यवादिता और अपने उसूलों पर कायम रहने वाला सिद्ध कर दिया।
तिलक के विद्यार्थी जीवन की अनेक घटनाओं में से कुछ निम्न हैं:
“एक बार बाल का मन चौपड़ खेलने को कर रहा था, लेकिन उनके साथ खेलने के लिये कोई भी दूसरा साथी नहीं था। अतः उन्होंने खम्भें को अपना दूसरा साथी बना लिया और दाँये हाथ (सीधे) से खम्भें के पासों को ड़ालते और बाँये हाथ से अपने पासों को फेंकर खेलने लगे। इस तरह खेलते हुये ये दो बार हार गये। इनकी दादी दूर बैंठी हुई इन्हें ऐसे खेलते हुये देख रहीं थी। तिलक को खम्भें से हारते हुये देखकर हँसते हुये बोली, ‘अरे बेटे गंगाधर! तुम एक खम्भे से हार गये।’ दादी की बात सुनकर गंगाधर ने बड़ी सौम्यता से कहा, ”हार गया तो क्या हुआ, मेरा दायां हाथ खंभे की तरफ था और मुझे दाएं हाथ से खेलने की आदत है। इसलिए खंभा जीत गया और मैं हार गया।”
“एक बार इनकी क्लास के कुछ विद्यार्थियों ने मूँगफली खाकर मूँगफली के छिलके क्लास में ही फेंक दिये जब इनके अध्यापक ने क्लास को गंदा देखा तो पूरी क्लास को दंडित करने लगे। जब शिक्षक ने उन्हें भी दंड देने के लिये हाथ आगे करने को कहा तो तिलक ने दंड स्वीकार करने से मान कर दिया और इन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘जब मैंने क्लास को गंदा नहीं किया हैं तो दंड क्यों स्वीकार करूँ।’ इस बात को सुनकर अध्यापक ने इनके पिता को सूचना दी। स्कूल की सारी घटना को सुनकर इनके पिता ने शिक्षक से कहा कि मैंने अपने बेटे को कुछ भी खरीदने के लिये रुपये नहीं दिये और न ही मेरा बेटा झूठ बोलता हैं, न ही बाजार की कोई चीज खाता हैं।”
बाल गंगाधर तिलक अपने जीवन में कभी भी अन्याय के सामने नहीं झुके। उस दिन अगर शिक्षक के डर से तिलक ने स्कूल में मार खा ली होती तो शायद उनके अंदर का साहस बचपन में ही समाप्त हो जाता।
“लोकमान्य तिलक बचपन से ही बहुत साहसी और निडर थे। गणित और संस्कृत उनके प्रिय विषय थे। स्कूल में जब उनकी परीक्षाएं होतीं, तब गणित की परीक्षा में ये हमेशा कठिन सवालों को हल करना ही पसंद करते थे।
इनकी इस आदत के बारे में इनके एक मित्र ने कहा कि तुम हमेशा कठिन सवालों को ही क्यों हल करते हो? अगर तुम सरल सवालों को हल करोगे तो तुम्हें परीक्षा में ज्यादा अंक मिलेंगे। इस पर तिलक ने जवाब दिया कि मैं ज्यादा-से-ज्यादा सीखना चाहता हूँ, इसलिए कठिन सवालों को हल करता हूँ। अगर हम हमेशा ऐसे काम ही करते रहेंगे, जो हमें सरल लगते हैं तो हम कभी कुछ नया नहीं सीख पायेंगे। यही बात हमारी जिंदगी पर भी लागू होती है, अगर हम हमेशा आसान विषय, सरल सवाल और साधारण काम की तलाश में लगे रहेंगे तो कभी आगे नहीं बढ़ पाएंगे।”
कुशाग्र (तेज) बुद्धि के स्वामी
तिलक बचपन से ही पढ़ने में तेज थे। इन्हें जब भी कुछ याद करने को दिया जाता ये उसे इतने अच्छे से याद करते कि कभी भूलते नहीं थे। जब इन्होंने हाई स्कूल में प्रवेश लिया तो देखा कि इन्हें आधे से ज्यादा पाठ्यक्रम पहले से ही याद था। एक बार इनके अध्यापक क्लास में नैषध काव्य की व्याख्या करा रहे थे। उन्होंने देखा कि तिलक उस व्याख्या को नहीं लिख रहे हैं। अध्यापक ने जब इनसे पूछा कि तुम व्याख्या क्यों नहीं कर रहे तो इन्होंने निड़रता से उत्तर दिया कि ये इसकी और भी बेहतर व्याख्या स्वंय कर सकते हैं जो इनकी ज्यादा मदद करेंगी।
14 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही इनकी अंग्रेजी और संस्कृत पर अच्छी पकड़ थी। इनके पिता संस्कृत में इनके कविता लिखने की शैली के साथ ही अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी और हिन्दी भाषा के इनके ज्ञान को देखकर खुद बहुत आश्चर्यचकित थे।
बाल गंगाधर का विवाह और पिता की मृत्यु
तिलक की माता जी की मृत्यु के बाद से इनके पिता अस्वस्थ्य रहने लगे थे। उस समय भारत में बाल विवाह की परम्परा थी। इसलिये इनके पिता ने भी 15 वर्ष की आयु में इनका विवाह गांव की भोली-भाली सीधी सी लड़की तापी से करा दिया। तापी की उम्र विवाह के समय केवल 10 साल की थी। जब इन दोनों की शादी हुई इन्हें शादी का सही अर्थ भी नहीं मालूम था, बस जानते थे तो इतना कि ये एक ऐसे बंधन में बंध गये हैं जिसे कभी न तो तोड़ा जा सकता हैं न भूला जा सकता हैं।
शादी के कुछ समय दिनों बाद तापी आगे की पढ़ाई करने के लिये अपने माता-पिता के पास आ गयी। शादी के बाद तापी का नाम बदलकर सत्यभामा रख दिया गया। बाल गंगाधर तिलक की शादी के बाद से इनके पिता के स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट होती रही। इनकी शादी के 1 साल बाद पिता की मृत्यु हो गयी। 16 वर्ष की अवस्था में तिलक अनाथ हो गये। इनके पिता की मृत्यु के बाद एक अभिभावक की सारी जिम्मेदारियों का निर्वहन इनके चाचा-चाची ने किया।
उच्च शिक्षा व कॉलेज का जीवन
अपने पिता की मृत्यु पर बाल गंगाधर तिलक को गहरा सहमा लगा। पिता की मृत्यु के समय तिलक मैट्रिक की पढ़ाई कर रहे थे। इन्होंने बहुत साहस के साथ अपने आप को संभाला और पिता की मृत्यु के 4 महीने के बाद मैट्रिक की परीक्षा पास की। 1872 में मैट्रिक पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिये इन्होंने डेक्कन कॉलेज में प्रवेश लिया। प्रारम्भ में तिलक कॉलेज 5 मील पैदल चलकर जाते थे लेकिन बाद में ये कॉलेज के छात्रावास में रहने लगे।
इनकी चाची इन्हें अपने पुत्र की तरह प्रेम करती थी। गंगाधर तिलक के छात्रावास में रहने के निर्णय पर ये चिन्तित हो गयी कि कहीं ब्रिटिश संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाला ये कॉलेज इनके भतीजे को भी अपने रंग में न रंग ले। लेकिन तिलक ने कभी कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिससे इनके परिवारजनों को कभी लज्जित होना पड़े। ये वहाँ हमेशा सादा रेशमी धोती पहनकर रहते थे और पलभर के लिये भी इन्होंने भारतीय संस्कृति को नहीं छोड़ा। छात्र जीवन में तिलक ने हमेशा सादा जीवन व्यतीत किया। किसी भी तरह के दिखावे और फैशन का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
तिलक ने जिस समय कॉलेज में प्रवेश लिया था ये उस समय बहुत दुर्बल शरीर वाले थे। अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट करने के लिये ये प्रतिदिन नियम से व्यायाम करते थे। कुश्ती, तैराकी, नौकायान इनके प्रिय खेल बन गये। ये कई-कई घंटों तक पानी में तैरते रहते थे। कॉलेज जीवन में एक साल के अन्दर ही तिलक का शरीर मजबूत और आकर्षक हो गया।
तिलक ने 1873 में डेक्कन स्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ से इन्होंने 1876 में बी.ए. आनर्स प्रथम श्रेणी से पास किया इसके बाद 2 साल में एल.एल.बी. किया। तिलक गणित में बहुत अच्छे थे। जब ये कानून की पढ़ाई कर रहे थे तब एक शिक्षक ने इनसे पूछा कि गणित का का इतना अच्छा ज्ञान होते हुये कानून की पढ़ाई करने का निर्णय क्यों लिया। इस पर तिलक ने सहजता से जबाव दिया, “गणित में उच्चशिक्षा प्राप्त करके अच्छी नौकरी मिल सकती है, लेकिन कानून की पढ़ाई करने से देश सेवा को भलीभाँति किया जा सकता है।”
बाल गंगाधर तिलक का विद्यार्थी जीवन या तिलक एक विद्यार्थी के रुप में
तिलक पढ़ते समय बहुत गहनता से पढ़ते थे। जब भी ये किसी विषय को पढ़ते तो उस विषय की जड़ तक पहुँचकर उसका अध्ययन करते थे। उस विषय से संबंधित अनेक पुस्तकों को सन्दर्भ के रुप में पढ़ते थे। इनका उद्देश्य उस विषय को अच्छे से समझना होता था न कि पढ़कर केवल अच्छे अंक (नम्बर) प्राप्त करना।
एकबार तिलक महारानी मैरी और महारानी एलिजाबेथ के शासन काल को पढ़ रहे थे। अपनी पाठ्यपुस्तक को एक तरफ रखकर इन्होंने उस से संबंधित अनेक सन्दर्भों को पढ़ा और अलग से उस विषय पर एक बिल्कुल नया पाठ लिख लिया।
बाल गंगाधर तिलक अधिकतर सब के सोने के बाद पढ़ते थे और पूरी रात अध्ययन करते हुये बिता देते थे। ये बहुत स्पष्ट वादी थे। इनके मन में जो भी आता ये साफ शब्दों में कह देते थे। इनके सहपाठी इसी आदत के कारण इन्हें ‘मि.ब्लंट’ कहते थे। व्यायाम करने के बाद इनकी शरीरिक शक्ति बढ़ गयी थी जिससे इनके साथी इन्हें ‘मि.डेविल’ भी कहते थे।
तिलक के बारे में कहा जाता हैं कि ये केवल अपने कोर्स में निर्धारित किताबों को पढ़कर संतुष्ट नहीं होते थे। ये अधिकतर “कैम्ब्रिज मैथमेटिकल जनरल” में प्रकाशित होने वाले गणित के सवालों को हल करते थे।
तिलक के शिक्षकों के साथ संबंध
बाल गंगाधर तिलक अपने विद्यार्थी जीवन में हर चीज के बारे में गहन अध्ययन करते थे। उस पर पूर्ण रुप से चिन्तन मनन करने के बाद ही तथ्यों को स्वीकार करते थे। जब भी इनके सामने किसी प्रश्न से ऐसी कोई दुविधा उत्पन्न होती जिसका ये समाधान कर पाने में असमर्थ होते तो उस प्रश्न का समाधान अपने अध्यापकों से करते थे और जब तक शिक्षक के जबावो से पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं होते तब तक उनसे तर्क करते रहते थे। गंगाधर की इस आदत के कारण इनके शिक्षक इनकी आलोचना करते थे और कई शिक्षकों के ये प्रिय छात्र बन गये। तिलक के प्रिय शिक्षकों में प्रोफेसर छत्रे, विलियम वर्ड्सवर्थ (प्रसिद्ध इंग्लिश कवि विलियम वर्ड्सवर्थ के पौते) और प्रो. शूट शामिल थे।
तिलक अपने गणित के प्रोफेसर केरुमन छात्रे के बहुत करीब थे। तिलक एक ऐसे विद्यार्थी थे जिसकी चाह हरेक शिक्षक को होती हैं और दूसरी ओर प्रोफेसर छात्रे खुद अपने विषय के महापंड़ित माने जाते थे। तिलक जब स्कूल के विद्यार्थी थे तब अक्सर जिन प्रश्नों से ये अपने क्लास के शिक्षकों से असहमत होते थे, उन समस्याओं और प्रश्नों को हल करने के लिये प्रो. छत्रे के पास आते थे। बाद में एक कॉलेज छात्र के रुप में तिलक ऐसे जटिल सवालों को हल करते और पूछते थे जो शिक्षक को भी सोचने पर मजबूर कर दें।
तिलक के गुणों ने प्रों. छत्रे को बहुत प्रभावित किया और ये उनके सबसे प्रिय छात्र बन गये। प्रोफेसर छत्रे तिलक जैसे अनोखे मौलिक विचारों वाले शिष्य को पाकर स्वंय को गौरवाविंत महसूस करते थे। तिलक का प्रोफेसर छत्रे के साथ बहुत गहरा रिश्ता था। ये अपने शिक्षक छत्रे को बहुत मानते थे। छत्रे जी की मृत्यु के बाद इन्होंने उनके सभी अधूरे कार्यों को पूरा करके उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी थी।
प्रोफेसर छत्रे के अतिरिक्त ऐसे अन्य शिक्षक भी थे जिन्होंने तिलक के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। इनमें प्रो. विलियम वड्सवर्थ और प्रो. शूट मुख्य रुप से शामिल थे। इन्होंने विलियम वड्सवर्थ से इंग्लिश लिटरेचर और प्रो. शूट से इतिहास और राजनीतिक अर्थशास्त्र का अध्ययन किया था।
सरकारी नौकरी न करने का निर्णय
कॉलेज में तिलक की मुलाकात गोपालराव आगरकर, खरे और अप्पा साहेब शारंगपणि से हुई। इनसे मुलाकात मित्रता में बदल गयी। आगरकर और तिलक ने अपने देश की सेवा करने के उद्देश्य से जीवन भर सरकारी नौकरी न करने का प्रण लिया। तिलक डबल ग्रेजुएट थे, यदि चाहते तो आसानी से कोई भी सरकारी नौकरी कर सकते थे लेकिन इन्होंने अपनी पहली प्राथमिकता देश सेवा को दी और सरकार के अधीन कोई भी पद ग्रहण नहीं किया।
भारत की तत्कालीन परिस्थितियों पर तिलक के विचार और सुधार के उपाय
तिलक जब मात्र 1 साल के थे, वो समय भारतीय के लिये ऐतिहासिक क्षण था। भारत की आजादी के लिये पहला भारतीय विद्रोह हुआ, जिसे 1857 की क्रान्ति के नाम से जाना जाता है। हांलाकि उस समय तिलक बहुत छोटे थे परन्तु इस क्रान्ति ने उनके बाल मन पर अमिट छाप छोड़ी। तिलक के दादाजी रामचन्द्र पंत ने इन्हें इस क्रान्ति में भाग लेने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों की कहानी सुनाकर इनके हृदय में देशभक्ति की लौ प्रज्वलित कर दी। इन सब परिस्थितियों ने बालकाल में ही इन में एक चिन्तक के गुणों को जाग्रत कर दिया।
तिलक ने देश की तत्कालीन परिस्थितियों पर बहुत गहरा चिन्तन किया। इन्होंने महसूस किया कि यदि देश को गुलामी की वर्तमान अवस्था से बाहर निकालना है तो इसके लिये भारत की शिक्षा पद्धति में सुधार करना आवश्यक है, क्योंकि अंग्रेजों द्वारा जिस पद्धति के आधार पर भारतियों को शिक्षा दी जा रही है वो केवल इतनी ही है जिससे कि अंग्रेज हम पर लम्बें समय तक शासन कर सके।
तिलक ब्रिटिश प्रेरित भ्रष्ट और मूर्ख बनाने वाली शिक्षा के भारतीय मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभावों से पूरी तरह परिचित थे। इनका मानना था कि ब्रिटिशों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा पूर्व व पश्चिम की नस्लवादिता पर आधारित थी। इसलिये इन्होंने सबसे पहले राष्ट्रीय शिक्षा पर बल दिया। एक सम्मानित शिक्षाविद् के रुप में प्रसिद्ध महादेव गोविन्द रानाडे का भी यहीं मानना था कि देश को जब तक आजाद नहीं कराया जा सकता जब तक कि इसके पास अमेरिका की तरह राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति और राष्ट्रीय प्रेस न हो।
न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना (जनवरी 1880)
1876 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने बी.ए. की डिग्री प्राप्त की और इसके बाद देशसेवा में अपना योगदान देने के उद्देश्य से 1879 में एल.एल.बी. की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। वकालात की डिग्री प्राप्त करने के बाद ये और इनके सहयोगी मित्र गोविन्दराव आगरकर पूरी तरह से देश-सेवा के क्षेत्र में उतर गये। यद्यपि आगरकर का मानना था कि सबसे पहले धर्म और घर परिवार की स्थिति में सुधार करना चाहिये अर्थात् वो समाज सुधार को प्राथमिकता देना चाहते थे। वहीं तिलक का मानना था कि यदि लोगों को शिक्षित किया जाये तो वो समाज सुधार में अधिक सहायक होगें।
राष्ट्रीय शिक्षा की योजना को कार्यान्वित करने के लिये धन की आवश्यकता थी। इसके लिये जन-धन का प्रबंध करने का निश्चय किया गया। इसी बीच इनकी मुलाकात विष्णु शास्त्री चिपलूणकर से हुआ। चिपलूणकर मराठी के प्रसिद्ध लेखक थे। 1873 में इन्हों सरकारी शिक्षक के रुप में नौकरी कर ली। इसी बीच इनके मन में अपने देश के युवाओं के हृदय में राष्ट्रीय चेतना जगाने की इच्छा हुई, जिसके लिये ये एक विद्यालय खोलना चाहते थे। जब गंगाधर तिलक ने इन्हें अपनी राष्ट्रीय शिक्षा योजना के बारे में बताया तो ये तुरन्त मदद करने के लिये तैयार हो गये।
इस तरह तिलक ने आगरकर, चिपलूणकर, एम.बी. नामजोशी के सहयोग से जनवरी 1880 को पहले प्राइवेट स्कूल “न्यू इंग्लिश स्कूल” की स्थापना की। इस स्कूल के संस्थापकों की प्रतिष्ठा के कारण आस-पास के जिलों के विद्यार्थियों ने प्रवेश लिया। प्रराम्भिक वर्षों में स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या 336 थी जो अगले 5 सालों में बढ़कर 1900 हो गयी। चिपलूणकर और तिलक दोनों ही धार्मिक थे लेकिन स्कूल के पाठ्यक्रम में कोई भी धार्मिक विषय शामिल नहीं किया गया। ये दोनों ही चाहते थे कि देश का प्रत्येक वर्ग (बच्चे, युवा, वृद्ध सभी) देश की वर्तमान परिस्थितियों को जाने। इस स्कूल ने पूना की सांस्कृतिक और राजनैतिक परिस्थितियों में एक नया इतिहास रचा था।
न्यू इंग्लिश स्कूल का शिक्षण विभाग और डेक्कन एजूकेशन सोसायटी की स्थापना (1885)
तिलक ने न्यू इंग्लिश स्कूल के शिक्षक का कार्यभार एल.एल.बी. करने के बाद 1880 में संभाल लिया। इसके बाद 1881 में आगरकर ने एम.ए. करने के बाद शिक्षण विभाग में शामिल हो गये। न्यू इंग्लिश के सबसे पहले शिक्षण विभाग में निम्नलिखित लोग शामिल थे –
- वी.के.चिपलूणकर
- एम.बी.नामजोशी
- वी.एस.आप्टे (एम.ए.)
- जी.जी.आगरकर (एम.ए.)
- वी.बी.केलकर (बी.ए.)
- एम.एस.गोले (एम.ए.)
- एन.के.धर्प (बी.ए.)
- लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (बी.ए. एल.एल.बी.)
बाल गंगाधर तिलक और इनके साथी (चिपलूणकर, आगरकर, नामजोशी, केलकर आदि) ने पहले साल संस्था में बिना किसी वेतन, पारिश्रमिक के बच्चों को शिक्षित किया। 1882 में विलियम हंटर की अध्यक्षता में एजुकेशन कमीशन ने बंबई प्रेजीडेंसी में आये तो न्यू इंग्लिश स्कूल के कार्यकर्ताओं ने उनके मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव छोड़ा। इस स्कूल के कार्यकर्ताओं के कार्य से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने भारतियों की उच्च शिक्षा के लिये कॉलेज स्थापित करने के लिये भी प्रेरित किया। सर विलियम हंटर ने न्यू इंग्लिश स्कूल की शिक्षा प्रणाली से प्रभावित होकर टिप्पणी की थी :
“इस विद्यालय की प्रगति देखते हुये मैं निश्चित होकर कह सकता हूँ कि पूरे भारत में इसकी बराबरी करने वाला एक भी स्कूल मेरी नजर में नहीं आया। बिना किसी सरकारी सहायता लिये ये स्कूल सरकारी हाई स्कूल की न केवल बराबरी करेगा बल्कि उससे प्रतियोगिता भी कर सकता हैं। यदि हम दूसरे देशों के स्कूलों से इसकी तुलना करें तो भी ये ही प्रथम आयेगा।”
1880 में ये तिलक और उनके मित्र सहयोगियों द्वारा उठाया गया क्रान्तिकारी कदम था क्योंकि उस समय केवल इसाई मिशनरी और सरकारी संस्थाएँ ही लोगों को शिक्षित करने का काम करती थी जो एक राष्ट्र के स्वराज्य के रुप में औद्योगिक उत्थान के लिये नेतृत्व की क्षमता का विकास करने में बिल्कुल विफल साबित हो रहीं थी। उस समय शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थाओं को हतोत्साहित किया जाता था। ऐसे समय में तिलक ने शिक्षा के माध्यम से देशवासियों की बुद्धिमत्ता, गिरती दृढ़ इच्छा और सोयी हुई अन्तःचेतना को जगाने के लिये प्रयास किया और जिसके परिणाम स्वरुप डेक्कन एजुकेशन सोसायटी अस्तित्व में आयी। 13 अगस्त 1885 में डेक्कन एजुकेशन सोसायटी को सोसायटी रजिस्ट्रेशन अधिनियम XXI, 1860 के अन्तर्गत पंजीकृत किया गया।
तिलक एक शिक्षक के रुप में
न्यू स्कूल की स्थापना के बाद तिलक के व्यक्तित्व का एक नया रुप सामने आया। तिलक स्कूल में गणित, संस्कृत और इंग्लिश पढ़ाते थे। इन्होंने कमजोर विद्यार्थियों के लिये अलग से पढ़ाना शुरु कर दिया। जो विद्यार्थी क्लास में पढ़ाई गये विषय को ठीक से समझ नहीं पाते थे तिलक उनकी अलग से अतिरिक्त क्लास लेते थे। तिलक हमेशा उन छात्रों की मदद के लिए उपस्थित रहते थे जो अपने सन्देहों और समस्याओं (पाठ्यक्रम से संबंधित समस्या) को सुलझाने के लिये उनके पास जाते थे।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की एक अजीब आदत थी। ये गणित पढ़ाते समय सवालों को मौखिक हल करते थे। ये कभी भी सवाल का हल ब्लैकबोर्ड (श्यामपट) पर नहीं लिखते थे, जिसका परिणाम ये होता था कि केवल वही छात्र इनकी रफ्तार को पकड़ पाते थे जो गणित में विशेष रुचि रखते थे। गणित के अतिरिक्त तिलक संस्कृत भी पढ़ाते थे।
तिलक किसी भी विषय की बुनियादी शिक्षा देते थे जो छात्रों को विषय को गहराई से समझने के लिये प्रोत्साहित करती थी। संस्कृत के श्लोकों को पढ़ाते समय ये छात्रों को समझाते थे कि कैसे एक संस्कृत श्लोक से दूसरे की उत्पति होती है। अंग्रेजी पढ़ाते समय ये एक-एक शब्द की व्याख्या न करके एस साथ एक पैराग्राफ का सार समझाते थे।
पत्रिकाओं के माध्यम से जन-जागृति की नयी पहल
बाल गंगाधर तिलक जन-साधारण की बेबसी से बहुत अच्छा तरह से परिचित थे। लेकिन जब इन्होंने बड़ौदा के महाराज मल्हार राव को भी अंग्रेज सरकार के सामने बेबस देखा तो इन्हें बहुत बड़ा धक्का लगा। ब्रिटिश सरकार ने महाराज मल्हार राव पर अभियोग लगाया कि इन्होंने रेजीडेंट कर्नल फेयर को जहर देने की कोशिश की हैं। इस अभियोग की जाँच के लिये सरकार ने कमीशन नियुक्त जिसमें इन्हें दोषी ठहराकर राज्य से वंचित कर दिया और सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली। दूसरी घटना दिल्ली दरबार में घटित हुई जिससे ये बिल्कुल साफ हो गया कि अंग्रेज भारतियों के लिये क्या सोचते हैं।
1877-78 में एक ओर तो भारत में भयंकर अकाल के कारण लोग भूखे मर रहे थे, वहीं दूसरी ओर ब्रिटिशों ने दिल्ली में दरबार लगाकर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को ‘केसर-ए-हिन्द’ की उपाधी देकर भारत की साम्राज्ञी घोषित किया। अंग्रेजों के इस कार्य से भारतीयों के मन में क्रोध भर गया। जिसके परिणामस्वरुप महाराष्ट्र में बलवंत फाकड़े के नेतृत्व में विद्रोह हुआ। इस क्रान्तिकारी विद्रोह को अंग्रेजों ने अपना दमन नीति से विफल कर दिया।
इन तीन प्रमुख घटनाओं ने तिलक को देश के स्वराज्य प्राप्ति के लिये नये सिरे से सोचने पर विवश कर दिया। बलवंत फाकड़े के क्रान्तिकारी विद्रोह का परिणाम ये स्वंय देख चुके थे। अतः एक बात तो स्पष्ट हो गयी थी कि सिर्फ क्रान्ति के द्वारा ही अंग्रेजों की गुलामी से आजादी नहीं पायी जा सकती। इसके लिये लोगों को देश की वास्तविक परिस्थितियों से परिचित कराना अति आवश्यक हैं। अतः तिलक ने पत्र प्रकाशन करके लोगों को जागरुक करने का लक्ष्य बनाया।
न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना करके तिलक ने देश के युवाओं को शिक्षित करके देश के भविष्य निर्माण के कार्य को शुरु कर दिया था। इसके बाद देश की तत्कालीन परिस्थितियों से देशवासियो को अवगत कराने और अपने राष्ट्रवादी कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिये तिलक ने अपने साथियों चिपलूणकर, नामजोशी और आगरकर के साथ समाचार पत्र निकालने का विचार किया। तिलक के साथी इनके इस विचार से सहमत हो गये और शीघ्र अति शीघ्र इस कार्य को शुरु करने के लिये तैयार हो गये।
1881 में समाचार पत्र के प्रकाशन के लिये आर्यभूषण प्रेस खरीदा गया। इस प्रेस में चिपलूणकर की निबंध-माला प्रकाशित होती थी। निबंध-माला के 66वें अंक में लोगों को सूचना दी गयी कि ‘केसरी’ और ‘मराठा’ दो समाचार पत्रों का प्रकाशन किया जायेगा। इसी अंक में इन दो समाचार पत्रों के प्रकाशन की नियमावली भी प्रकाशित की गयी।
‘ केसरी’ और ‘मराठा’ समाचार पत्रों का घोषणा पत्र और इनका उद्देश्य
तिलक के सहयोगियों चिपलूणकर, आगरकर, गर्दें और बी.एम. नामजोशी के संयुक्त हस्ताक्षरों के साथ ‘केसरी’ का घोषणापत्र प्रकाशित किया। इस घोषणा पत्र में कहा गया था कि इसमें अन्य पत्रों की भाँति समाचार, राजनीतिक घटनाएँ, व्यापार के साथ ही सामाजिक विषय पर निबंध, नयी पुस्तकों की समीक्षा और इंग्लैंण्ड की नयी राजनीतिक घटनाओं की भी चर्चा की जायेगी।
इस घोषणा पत्र ने ये साफ कर दिया थे कि ये दोनों समाचार पत्र अन्य पत्रों की तरह प्रचलित शासन व्यवस्था की चापलूसी नहीं करेगें। इन दोनों पत्रों की विषय सामग्री एक ही थी। अन्तर केवल इतना था कि ‘केसरी’ पत्र मराठी भाषा में प्रकाशित होता था और ‘मराठा’ पत्र अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित किया जाता था। इन दोनों पत्रों का एकमात्र उद्देश्य देशवासियों में स्वाधीनता की भावना का विकास करना था।
अपने इसी उद्देश्य को सार्थक करते हुये ‘मराठा’ का पहला अंक 2 जनवरी 1881 को और ‘केसरी’ का पहला अंक 4 जनवरी 1881 को प्रकाशित किया गया। ‘केसरी’ पत्र के सम्पादन का कार्य गंगाधर तिलक करते थे और आगरकर ‘मराठा’ के सम्पादक के रुप में कार्य करते थे। ‘केसरी’ के प्रथम अंक के प्रकाशन के बाद खुद तिलक ने घर-घर जाकर इसकी प्रतियाँ ग्राहकों को पहुँचायी थी।
कोल्हापुर काँड़ (बरवै मानहानि केस) और तिलक की पहली जेल यात्रा
‘केसरी’ और ‘मराठा’ दोनों पत्रों के संस्थापक स्पष्टवादी और निर्भीक थे। ये दोनों ही इन पत्रों के माध्यम से सरकार की नीतियों और देश की वर्तमान परिस्थितियों पर सीधे कटाक्ष करके लेख लिखे जाते थे। इसके ग्राहकों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ने लगी। समाचार पत्रों की लोकप्रियता के साथ-साथ तिलक की भी लोकप्रियता बढ़ने लगी। लोगों को भी ये विश्वास हो गया कि ये लोग न केवल समाज सुधारक है बल्कि देश भक्त भी है।
‘केसरी’ और ‘मराठा’ दोनों पत्रों में देशी रियासतों के प्रबंध के बारे में बराबर लिखा जाता था। इसका कारण ये था कि इन देशी रियासतों को स्वतंत्रता और परंपरा का संरक्षक समझा जाता था। पत्रिका के सम्पादकों की लेखनी ब्रिटिश सरकार के लिये तीखी रहती थी। इस सन्दर्भ को 24 अप्रैल 1881 में प्रकाशित एक लेख स्पष्ट करता है:
“इतिहास के छात्रों की तेज नजर ने देश में अंग्रेजों के बढ़ते हुये कदम तथा देशी युवराजों के साथ दुर्व्यवहार को अच्छी तरह से जान लिया है। वो जान गये हैं कि सरकार उन पर हावी रहती है और उन्हें आश्रित (मातहत, दास) बना लिया है।”
कोल्हापुर का राजा राजाराम यूरोप घूमने गया था और 1870 में उसकी इटली मृत्यु हो गयी थी। उसकी रानियों ने गोद लिये पुत्र शिवाजीराम को गद्दी पर बैठा दिया। 1877 में वो कुछ पागलों की तरह हरकत करने लगा। कहा जाता है कि उसे पागल बनाने के लिये धोखे से दवाईयाँ दी जाती थी। इस कार्य को राज्य का दीवान रावबहादुर महादेव वासुदेव बरवै राजकुमार की सौतेली माँ की मदद से करता था।
इस घटना को जन साधारण की नजर में लाने के लिये मराठा और केसरी दोनों में लेख लिखे जाते थे। 27 नवम्बर 1881 को मराठा पत्रिका में युवा महाराज को “हैमलेट” और बरवै को “क्लोडियस” कहते हुये एक लेख लिखा। जिसमें कहा गया कि युवराज के दोनों संरक्षक उसे पागल घोषित करके राजगद्दी हड़पने का षड़यंत्र कर रहे हैं। इस समाचार से पूरे महाराष्ट्र में सनसनी फैल गयी। इसी बीच तिलक और आगरकर को इससे संबंधित 3 पत्र प्राप्त हुये, जिन्हें बरवै द्वारा लिखित बताया गया था। इन पत्रों में शिवाजी को जहर देने का वर्णन था।
तिलक ने इन पत्रों को मराठा और केसरी दोनों पत्रों में छपवा दिया। इस समाचार के छपते ही रावबहादुर को अपनी स्थिति खतरे में महसूस हुई और उसने इन पत्रों के सम्पादकों पर मानहानि का केस कर दिया। इस केस की सुनवायी मैजिस्ट्रेट मि.बेव की अदालत में हुई। जस्टिश लेथम ने जूरी की सलाह पर इन्हें अपराधी घोषित करके इन दोनों को 17 जुलाई 1881 को 4-4 महीने की सामान्य कैद की सजा सुना दी।
सजा के बाद गंगाधर तिलक और आगरकर को डोंगरी जेल में डाल दिया गया। इस जेल में इनके साथ अपराधियों वाला व्यवहार किया गया। 25 दिन तक इन्हें कुछ भी पढ़ने लिखने के लिये सुविधायें नहीं दी गयी। इस मुकदमें ने लोगों को तिलक के समर्थन में कर दिया। लोगों के मन में इनके लिये श्रद्धा और अधिक बढ़ गयी। 26 अक्टूबर 1882 को 4 महीने की सजा पूरी करने के बाद जब ये रिहा हुये तो इनका स्वागत करने के लिये 2000 लोग उपस्थित थे।
डेक्कन एजुकेशन सोसायटी से इस्तीफा
तिलक ने अपने साथियों के साथ न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना ही देशसेवा के उद्देश्य से की थी। तिलक और इनके सहयोगियों का उद्देश्य शिक्षा को उदार बनाकर देशवासियों के अनुकूल बनाना था ताकि देश के युवाओं को एक बेहतर दिशा दे सके। इन्होंने निश्चय कर लिया था कि ये सब किसी भी अन्य साधन को अपनी आय का माध्यम नहीं बनायेगें।
1885 में डेक्कन एजुकेशन सोसायटी की स्थापना करके एक नये कॉलेज फर्ग्यूसन कॉलेज की भी स्थापना कर दी गयी। कोल्हापुर केस के बाद ‘केसरी’ ‘मराठा’ दोनो पत्रिकाओं की लोकप्रियता भी बढ़ गयी। कोल्हापुर के नये राजा से समिति के संबंध अच्छे हो गये थे अतः नये कॉलेज की स्थापाना के लिये यहाँ से भी बहुत अर्थिक सहायता प्राप्त हुई। चिपलूणकर की मृत्यु (1882) के बाद समिति को बहुत ज्यादा हानि पहुँची। कॉलेज की स्थापना के बाद समिति के आन्तरिक मतभेद दिखाई देने लगे थे। 1885-86 में ये मतभेद बड़े विवाद में बदल गये और इन्हीं मतभेदों के कारण तिलक ने 14 अक्टूबर 1890 को समिति से त्यागपत्र दे दिया।
सोसायटी से मतभेद के कारण
तिलक ने अपने सहयोगियों के साथ स्कूल की स्थापना आत्मत्याग और देश सेवा की भावना से की थी। इस समिति ने निर्णय लिया था कि कभी भी खुद के लिये लाभ हो इस धारण से कोई भी सदस्य कार्य नहीं करेगा। 1882 में चिपलूणकर की मृत्यु के बाद समिति के अन्य सदस्यों में त्याग की वो भावना नहीं रही जो न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना के समय थी। लेकिन तिलक अपने बनाये हुये सिद्धान्तों पर अटल थे।
पहले मतभेद का कारण ‘केसरी’ और ‘मराठा’ थे। समिति के अन्य सदस्यों का मत था कि इन पत्रों से समिति के कार्यों में बाधा पड़ती हैं अतः इनकी व्यवस्था अलग से करनी चाहिये। दूसरे जब कॉलेज की स्थापना के बाद समिति में नये सदस्यों का प्रवेश हुआ तो वो अधिक सुविधाओं की माँग करने लगे। तिलक का मत था कि शिक्षा समिति के सदस्यों द्वारा लिखी गयी पुस्तकों की आय पर समिति का ही अधिकार होना चाहिये जबकि गोखले और आगरकर ये अधिकार लेखक को देना चाहते थे। समिति में गोखले की बात को रखा गया और पुस्तक की आय पर लेखक का अधिकार होने का निर्णय समिति ने लिया।
बाल गंगाधर तिलक को लगा कि समिति त्याग की भावना से कार्य नहीं कर रही है। ये समिति के सदस्यों को स्वार्थ की पूर्ति के लिये कार्य करते हुये नहीं देख सकते थे। अतः 14 अक्टूबर 1890 को समिति से त्यागपत्र देकर स्वंय को पूरी तरह से संस्था से अलग कर लिया।
‘केसरी’ और ‘मराठा’ पत्रिकाओं का सम्पादन
डेक्कन एजुकेशन सोसायटी से मतभेद हो जाने के कारण तिलक ने समिति से अपने सारे संबंध तोड़ लिये। इसके बाद आगरकर ने ‘केसरी’ पत्र का संपादन कार्य बन्द कर दिया। आगरकर द्वारा केसरी का सम्पादन छोड़ने पर दोनों पत्रों के सम्पादन की जिम्मेदारी तिलक पर आ गयी। कोल्हापुर केस के कारण इन दोनों पत्रों पर 7000 रुपये का ऋण थी जिसकी क्षतिपूर्ति भी तिलक को करनी थी। इन दोनों पत्रों की आय बहुत ज्यादा नहीं थी अतः तिलक को आय को नया साधन खोजने पड़े।
इन्होंने अपनी आय के लिये हैदराबाद (लाठूर) में रुई ओटने का कारखाना खोला। इसके साथ ही ये कानून की क्लास भी देते थे। 1896 से एन.सी.केलकर ने मराठा के सम्पादन में सहयोग देने लगे। इनका भतीजा इनके रुई ओटने के कारखाने में हाथ बंटाता था। इस तरह धीरे-धीरे तिलक अपने जीवन को फिर से पटरी पर ले आये।
नारी शिक्षा पर तिलक के विचार और ब्रिटिश शासन के लिये तीन सूत्रीय कार्यक्रम
तिलक के नारी शिक्षा के समर्थक थे। ये नारी शिक्षा पर अलग से केसरी और मराठा दोनों पत्रों के संपादकीय लेख में अपने विचारों को लिखते थे। ये भारतीय नारियों को शिक्षित करना चाहते थे लेकिन ब्रिटिश पद्धति के आधार पर नहीं। इनका मानना था कि किसी भी समाज में नारी का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है क्योंकि एक शिक्षित नारी राष्ट्र के स्वरुप के परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। इसके साथ ही इनका मानना था कि लड़कियों के लिये शिक्षा का अलग ढंग होना चाहिये, न कि अंग्रेजी ढंग।
बाल गंगाधर तिलक का मानना था कि भारत में स्त्रियों की दशा दूसरे देशों की स्त्रियों से भिन्न है। हमारी संस्कृति में भी स्त्रियों को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इसलिये इनकी शिक्षा का पाठ्यक्रम और कार्यक्रम भी भिन्न होना चाहिये। तिलक ने स्त्री शिक्षा का कभी विरोध नहीं किया बल्कि अंग्रेजी ढंग से स्त्रियों को शिक्षित करने पर प्रश्न उठाया। इन्होंने स्कूल के 6 घंटों के अध्ययन समय पर भी एतराज किया। इनके अनुसार लड़कियों के लिये स्कूल में अध्ययन समय आधा होना चाहिये जिस से कि वो आधे समय पढ़ाई करके अपने घर-परिवार की देखरेख कर सकें।
तिलक ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ तीन सूत्रिय कार्यक्रम की वकालात की। जिसमें विदेशी कपड़ो, विदेशी उद्योगो और विदेशी शिक्षा के बहिष्कार के साथ ही स्वदेशी कपड़ो, उद्योगों और राष्ट्रीय शिक्षा को बढ़ावा देने पर जोर दिया। तिलक ने मराठा में प्रकाशित एक लेख में स्पष्ट किया कि देश की आधी से ज्यादा पूँजी विदेशों से चीजें खरीदने में खर्च कर दी जाती हैं। इसके स्थान पर यदि भारत में ही उद्योगों का विकास करने में एक बार ये पूँजी खर्च की जाये तो इससे लम्बे समय तक देश को फायदा होगा और देश के विकास का मार्ग प्रशस्त होगा। राष्ट्र के विकास के लिये तिलक ने जो विचार केसरी और मराठा पत्रों में दिये उन्होंने इन्हें एक शिक्षक से राजनेता बना दिया।
सामाजिक संघर्ष (क्राफर्ड और रमाबाई केस)
डेक्कन सोसायटी से अलग होने के बाद तिलक पूरी तरह से समाज सुधार के कार्यों में लग गये। ये दोनों पत्रों (केसरी और मराठा) में समाज की बुराईयों पर खुले तौर पर लिखते थे। इस बीच इन्होंने एक तहसीलदारों के पक्ष में एक केस लड़ा जिससे ये एक सफल वकील के रुप में प्रसिद्ध हो गये।
आर्थर ट्रेर्क्स क्राफर्ड पर रिश्वत का केस
आर्थर ट्रेर्क्स क्राफर्ड रत्नागिरी में कलक्टर था। वो किसी भी काम को करने के लिये तहसीलदारों से रिश्वत लेता था उसके बाद ही कार्य करता था। उसके व्यवहार से परेशान होकर लोगों ने उसके खिलाफ जब शिकायत की तो उसके विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिये तहसीलदारों की सहायता लेने का निश्चय किया गया। साथ ही जांच अधिकारी को ये अधिकार दिया गया कि वो सहायता देने वाले तहसीलदारों को क्षमा भी कर सकता है। लेकिन सरकार के इस अधिकार पर दो पक्ष हो गये। एक पक्ष मानता था कि सहायक तहसीलदारों को भी फसा देना चाहिये दूसरे पक्ष का मानना था कि ऐसा करना गलत होगा। इसी दूसरे मत के समर्थन में तिलक भी थे।
क्राफर्ड पर आरोप सिद्ध होने के बाद इसे पद से हटा दिया गया और इसके सहायक हनुमन्तराव इनामदार (कर्नाटक) को 2 साल की सजा और 2000 रुपये के आर्थिक दंड़ की सजा दी गयी। निर्णय के कुछ दिन बाद क्राफर्ड लापता हो गया। बाद में इसे बम्बई में गिरफ्तार कर लिया गया। यहाँ इस पर मुकदमा न चलाकर आयोग बिठाया जिसने इसे दोषमुक्त कर दिया। बम्बई सरकार की नजरों में ये अपराधी था। अतः ये मामला भारत सचिव के पास पहुँचा जहाँ आयोग के फैसले को सही बताया लेकिन इसे नौकरी से हटा दिया। भारत सचिव के इस फैसले पर तहसीलदारों के विषय पर प्रश्न उठा जिन्होंने इसे रिश्वत देना स्वीकार किया था।
तिलक चाहते थे कि तहसीलदारों को क्षमा दी जाये। इसके लिये 1889 में एक सभा हुई जिसमें तिलक, रानाडे आदि वकीलों ने भाग लिया। तिलक ने इनके पक्ष में ब्रिटेन के 1725 के केस का उदाहरण भी दिया। इंग्लैण्ड में 1725 में एक गवर्नर ने 50 हजार की रिश्वत लेकर कुछ पदों पर नियुक्तियाँ करायी थी। उस मुकदमें के दौरान गवाहों को सुरक्षित करने के लिये संसद ने नया कानून बनाया था। तहसीलदारों का पक्ष रखते हुये तिलक ने ये उदाहरण प्रस्तुत किया। तिलक के अथक प्रयासों के कारण सरकार को इनकी बात माननी पड़ी और जिन तहसीलदारों ने मजबूरी या जबदस्ती में रिश्वत दी थी उन्हें माफ कर दिया गया और जिन्होंने अपनी मर्जी से रिश्वत दी थी उन्हें पद मुक्त कर दिया गया। इस केस के बाद तिलक एक वकील के रुप में प्रसिद्ध हो गये।
रमाबाई शारदा सदन केस
रमाबाई एक निर्धन ब्राह्मण की कन्या थी। इनके माता-पिता ने इनका विवाह बहुत छोटी सी आयु में कर दिया था। लेकिन ये कुछ समय बाद ही विधवा हो गयी। इस दुखद घटना के बाद इन्होंने स्वंय मेहनत करके शिक्षा प्राप्त की। इसी बीच रमाबाई ने ईसाई धर्म स्वीकर कर लिया। कुछ समय के लिये इन्होंने चैन्टनहम विमन्स कॉलेज में संस्कृत का अध्यापन कराया। ये अपने कार्यों के कारण अमेरिका तक में प्रसिद्ध हो गयी। अमेरिकी मिशनरी सोसायटी ने अपने देश की महिलाओं की दशा में सुधार करने के लिये आर्थिक सहायता की। जिसके बाद इन्होंने पूना आकर 1889 में शारदा सदन खोला। इस सदन में 7 विधवाएँ रहती थी। सदन खोलने के साथ ही इन्होंने ये घोषणा कर दी थी कि शारदा सदन सिर्फ स्त्रियों की दशा में सुधार करने के लिये खोला गया है; न कि ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिये।
बाल गंगाधर तिलक को सदन के खुलने के बाद से ही इसकी कार्यप्रणाली पर शक था लेकिन सबूतों के अभाव में कुछ नहीं कर पा रहे थे। कुछ समय बाद इनका शक यकीन में बदल गया जब इस सदन के लिये खाद्य सामग्री की पूर्ति कराने वाली कृष्णाबाई ने तिलक को पत्र भेजा। इस पत्र में साफ लिखा गया था कि ये सदन यहाँ रह रही हिन्दू महिलाओं को अपने धार्मिक उत्सव, अनुष्ठान, नियम आदि कुछ भी करने की इजाजत नहीं देता। वो हिन्दू मन्दिरों में भी नहीं जा सकती।
इस पत्र के मिलने के बाद तिलक ने शारदा सदन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। तिलक ने रमाबाई के भाषणों के कुछ अंश के साथ कृष्णाबाई के पत्र को साप्ताहिक समाचार-पत्र केसरी और मराठा में प्रकाशित कर दिया। इस तरह इन्होंने देश में समाज सुधार के नाम पर संस्था खोलकर उनके धर्म परिवर्तन के ढ़ोंग को केसरी समाचार पत्र के माध्यम से उजागर किया।
गणपति समारोह और शिवाजी उत्सव मनाने की प्रथा की शुरुआत
बाल गंगाधर तिलक ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने वाले वो महाराष्ट्रीयन नेता थे जो भारतीय संस्कृति और परंपराओं में पूरी तरह से रंगे हुये थे। ये देश का विकास धार्मिक और सामाजिक विकास के साथ-साथ करना चाहते थे। इन्होंने देश में हिन्दूओं को एक सूत्र में बाँधने के लिये 1893 में गणपति उत्सव की शुरुआत की थी। वहीं शिवाजी उत्सव की शुरुआत सोये हुये भारतियों को उनकी क्षत्रियता को याद दिलाने के लिये की गयी।
प्राचीन काल से ही भारत अपने गौरवान्वित इतिहास के लिये प्रसिद्ध है। यहाँ तक की महाराष्ट्र को तो वीर भूमि कहा जाता है। ऐसे में जब तिलक ने मराठियों को गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुये देखा तो ये सहन नहीं कर पाये। अंग्रेजों की फूट डालो शासन करों की नीति को विफल करने व सभी भारतियों को एकसूत्र में बांधने के लिये गणपति उत्सव और उनके सोये हुये वीरत्व को जगाने के लिये शिवाजी उत्सव शुरु किया।
भारतीय अशान्ति का दौर (हिन्दू-मुस्लिम दंगे)
1893-94 में भी सरकार अपनी फूट डालो शासन करों की नीति के तहत हिन्दू-मुस्लिम संम्प्रदायिकता को बढ़ावा देकर इनके बीच आपसी मतभेदों में कोई हस्तक्षेप नहीं करती थी। 1893 में बम्बई और पूना के साथ अन्य राज्यों में भी हिन्दू-मुस्लिम दंगे बढ़ गये। मुस्लिम हिन्दूओं के मन्दिरों को तोड़ते और उनके द्वारा निकाले जाने वाले जुलूसों में विघ्न डालते थे।
15 अगस्त 1893 को तिलक ने अंग्रेजी शासन को चोतावनी देते हुये कहा कि; “सरकार से लगातार प्रोत्साहन मिलने के कारण मुस्लिमों ने आक्रामक व्यवहार अपना लिया है। जिसका कारण सिर्फ इतना है कि ब्रिटिश स्वंय को मुस्लिमों का संरक्षक कहते हैं। ब्रिटिशों का कहना था कि केवल वो ही मुस्लिम संम्प्रदाय को हिन्दूओं से सुरक्षित रख सकते हैं। दोनों जातियों के शिक्षित नेताओं में कोई वास्तविक झगड़ा नहीं है, झगड़ा तो अशिक्षित, अनपढ़ों के बीच में है। यदि ऐसे लोगों को काबू में रखना है तो सरकार को किसी एक का पक्ष लेने की नीति छोड़नी होगी। यदि सरकार निष्पक्षता की नीति नहीं अपनायेगी तो हिन्दूओं को अपनी रक्षा के लिये स्वंय संघर्ष करना होगा जैसे बम्बई में किया था।”
बाल गंगाधर तिलक के इन लेखों और भाषणों को आधार बनाकर कई ब्रिटिश अधिकारियों ने इनके खिलाफ लोगों को भड़काने की कोशिश की। कई अधिकारियों ने इन्हें मुस्लिम विरोधी कहा। इनमें सबसे आगे था, सर वैलेन्टाइन शिरोल। इसने अपने लेख “इंडियन अनरैस्ट” में तिलक को “फादर ऑफ इंडियन अनरैस्ट (भारतीय अशान्ति का जनक)” कहा था। शिरोल ने अपने इसी लेख में लिखा था, “1893 में बम्बई में बहुत बड़ा दंगा हुआ। तिलक को जनता की मुस्लिम विरोधी भावना को उकसाने का अवसर मिल गया। तिलक ने मीटिंग में बड़े जोश से मुस्लिमों को हिन्दुओं का कट्टर शत्रु कहा।”
एंग्लो इंडियन प्रेस तो इससे भी दो कदम आगे निकल गयी। इसने तिलक को कट्टर हिन्दू लीडर कहने के साथ ही ये भी कहा कि ये ‘मराठा एम्पायर’ बनाने को सपना देश रहे हैं, जिसमें इनका साथ बम्बई के ‘द टाइम्स’ और इलाहबाद के ‘पायोनियर’ पत्र भी कर रहे हैं।
भारत में अकाल और महामारी का दौर में ब्रिटिश सरकार को सीधे चुनौती
भारत में 1876-1900 के बीच में सबसे ज्यादा अकाल पड़े। इस बीच में 18 बार भारतवासियों ने अकाल के प्रकोप को सहन किया। 1896 में भारत में जब अकाल पड़ा तो तिलक ने अपनी पत्रिका केसरी के माध्यम से लेख लिखकर भारत की वास्तविक परिस्थिति से अवगत कराया। एक तरफ तो किसान अकाल के कारण कष्ट झेल रहे थे वहीं सरकार ने उनकी लगान को माफ नहीं किया। इस कारण तिलक ने अपने समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार से जबावदेही शुरु कर दी।
दूसरी ओर गंगाधर तिलक ने किसानों को भी उनके हक के लिये माँग करने के लिये प्रेरित किया। इन्होंने किसानों को सम्बाधित करते हुये कहा कि, “क्वीन चाहती है कि कोई न मरे, गवर्नर घोषणा करता है कि सब जीवित रहे और सेक्रेटरी ऑफ स्टेट, आवश्यकता पड़ने पर खर्च करने को तैयार है तब आप कायरतावस भूखे मरोगे?….बाजार क्यों लूटते हो कलेक्टर के पास जाओं और काम व अनाज देने के लिये कहो। ये उनका कर्त्तव्य है।”
तिलक ने न केवल लोगों को भारत के अकाल के सन्दर्भ में अपने लेखों के माध्यम से वास्तविक परिस्थिति से अवगत कराया बल्कि स्वंयसेवकों के दल के साथ अकाल पीड़ितों की मदद भी की। इनके लेखों से पूरे भारत में वर्तमान सरकार के प्रति असंतोष की भावना भर गयी। एंग्लो इंडियन कमेटी की पत्रिका “द टाइम्स ऑफ इंडिया” भारतीय अशान्ति का कारण भारत के अकाल को नहीं बल्कि सार्वजनिक सभा के सदस्यों को मानता था जिसके नेता तिलक थे।
17 मार्च 1897 को गवर्नमेंट ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसे प्रकाशित किया गया। इसमें साफ तौर पर लिखा गया कि पूना की सार्वजनिक सभा सरकार की किसी भी नीति के बारे में बात करने का अधिकार नहीं है। सरकार के इस प्रस्ताव पर तिलक ने 21 मार्च को मराठा में एक लेख छापा, “सरकार को भेजी गयी पैटीशन (याचिका) पर सरकार कोई कार्य करे या न करे पर जनता के लिये बनायी गयी नीति के सन्दर्भ में सरकार से प्रश्न पूछने से कोई नहीं रोक सकता। साथ ही ये भी कहा कि सभा का संगठन किसी गवर्नमेंट के प्रस्ताव पर नहीं हुआ तो वो इसे खत्म भी नहीं कर सकती।”
भारतियों के हित की बात आने पर तिलक ने अपने समाचार पत्रों के और पूना की सार्वजनिक सभाओं के माध्यम से सीधे ही सरकार से जनता के हित में प्रश्न उठाये। अपने इन कार्यों से तिलक सरकार की आँख में काँटे की तरह चुभने लगे थे। तिलक ने बिना किसी स्वार्थ की भावना के किसानों के हित के लिये सरकार के खिलाफ आवाज उठायी थी। इनके इस कार्य ने किसानों का दिल जीत लिया। ये अब बुद्धिजीवी समाज के साथ-साथ सामान्य जनता के भी दिलों पर राज करने लगें। अब लोग इन्हें “लोकमान्य” कहने लगे।
1896 में एक तरफ तो देश अकाल से पीड़ित था वहीं दूसरी तरफ प्लेग की महामारी भी फैल गयी। इसकी शुरुआत अक्टूबर 1896 में बम्बई में हुई और अगले साल 1897 में पूना तक फैल गयी। तिलक ने प्लेग पीड़ित व्यक्तियों के इलाज और खाने के लिये धन इकट्ठा किया, अस्पताल और कैंम्प लगावाकर रोग ग्रसित लोगों की मदद की। परिस्थिति की गम्भीरता को देखते हुये सरकार ने 4 फरवरी 1897 को “एपेडेमिक डिज़ीज एक्ट” लागू कर दिया। इस एक्ट के अन्तर्गत वायसराय और गवर्नर को विशेष अधिकार मिल गये। इन विशेषाधिकारों के तहत भारत तट पर आने-जाने वाले स्टीमरों की जाँच, यात्रियों और जहाजों को रोक कर उनकी जाँच, रेल में आने जाने यात्रियों का किसी भी स्टेशन पर रोक कर परीक्षण, मकानों की जाँच आदि।
गंगाधर तिलक ने अपने लेखों के द्वारा सरकार के इस प्रयास की सराहना की और लोगों से सरकार का सहयोग करने की अपील की थी और स्वंय भी अधिकारियों की इस कार्य में सहायता की। लेकिन अधिकांश लोगों ने अपने घर में रहकर भगवान की दया पर निर्भर रहने के पक्ष में थे। दान से चलने वाले हिन्दू अस्पतालों में कोई आना नहीं चाहता था। तिलक के हॉस्पिटल में भी कुल 40-50 मरीज आये थे। अतः सरकार के लिये पुलिस की सहायता लेना जरुरी हो गया था।
सरकार ने प्लेग की रोगथाम के लिये पुलिस अधिकारी रैण्ड को प्लेग कमीशनर नियुक्त किया जो अपनी सख्ती के लिये बहुत प्रसिद्ध था। गंगाघर तिलक भी इसकी पृष्ठभूमि (इतिहास) से डर गये कि कहीं वो रोगियों के साथ अधिक कठोरता के साथ व्यवहार न कर दें। इस पर तिलक ने केसरी में लेख भी लिखा कि अधिकारियों लोगों का सहयोग प्राप्त करने की कोशिश करनी होगी।
तिलक का भयभीत होना सही साबित हुआ। “एपेडेमिक डिज़ीज एक्ट” के अन्तर्गत मिले विशेष अधिकारों के तहत रैण्ड को मकानो का निरीक्षण किया और उन सभी सामानों को नष्ट कर दिया जिन से प्लेग फैलने की संभावनाएं थी। इसने वृद्धों और स्त्रियों के साथ बदसलूकी की साथ ही स्वस्थ्य व्यक्तियों को भी महामारी वाले अस्पताल में भर्ती कर दिया।
रैण्ड की हत्या के लिये जन आक्रोश बढ़ाने के आरोप में तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा
रैण्ड के अमानुषिक व्यवहार को देखते हुये तिलक ने केसरी के एक लेख में ‘ए वास्ट एंजिन ऑफ ऑपरेशन’ कहा। पूना के कुछ युवक पूनावासियों की इस दशा का जिम्मेवार रैण्ड को मानते थे। उन्होंने दुर्वव्यवहार का बदला लेने के लिये 22 जून 1897 को क्वीन विक्टोरिया की डायमंड जुबली की शाम इंस्पेक्टर रैण्ड और एयर्स्ट की गोली मारकर हत्या कर दी।
केसरी में लिखे गये तिलक के लेख और ब्रिटिश अधिकारियों व सिपाहियों के गलत व्यवहार के कारण तिलक के कहे गये कथन “यूज फोर्स इन सैल्फ डिफेंस विच इज लीगल” से ब्रिटिश सरकार ने ये अनुमान लगाया कि इस हत्या के पीछे तिलक है। रैण्ड की हत्या उसके भारतियों के साथ दुर्व्यवहार के कारण चापेकर बन्धुओं ने की थी। तिलक पर अपने लेखों के द्वारा इन नवयुवकों को उकासने का इल्जाम लगाया गया था। प्लेग के खत्म होने के 4 सप्ताह बीते भी नहीं थे कि तिलक को राजद्रोह के लेख लिखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
अंग्रेजी सरकार किसी भी तरह से भारतीय जनता तिलक के बढ़ते हुये प्रभाव को रोकना चाहती थी। इंस्पेक्टर रैण्ड की हत्या होने पर बिना कोई देर किये तिलक पर लोगों राजद्रोह के लिये भड़काने व ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ षड़यन्त्र करने का आरोप लगाकर धारा 124-ए के अन्तर्गत ड़ेढ साल (18 महीने) की कैद की सजा सुनायी।
जूरी के 6 सदस्यों ने तिलक को अपराधी सिद्ध किया और बाकि 3 सदस्यों की नजरों में ये निर्दोष थे। जज ने इन्हें सजा सुनाते हुये टिप्पणी की थी;
“आप कोई सामान्य अप्रसिद्ध संपादक नहीं है। आपकी बुद्धिमत्ता और योग्यता उल्लेखनीय है, किन्तु आपके ये लेख जनता में विद्रोह की भावना को और भी अधिक प्रबल कर सकते थे।‘ मेरा निश्चित मत है कि आपने पाठकों के मन में अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह को प्रबल करने के लिये ही वो लेख लिखे थे। मुझे बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि वो लेख एक विद्वान व्यक्ति के द्वारा लिखे गये। मैं आपको 18 महीने का दंड देता हूँ।”
तिलक की रिहाई के प्रयास और जेल में तिलक का जीवन
सरकार तिलक के चापेकर बंधुओं के साथ गुप्त संबंध समझती थी, वो भी सिर्फ इसलिये क्योंकि चापेकर भाईयों ने इनसे गीता की प्रति माँगी थी और तिलक से अपना अंतिम संस्कार करवाने को कहा था। केवल इसी आधार पर सरकार रैण्ड की हत्या के आरोप में इन्हें फंसा कर सजा देना चाहती थी। सरकार ने अपनी छानबीन में काई कसर नहीं छोड़ी। पूरी तरह से निर्दोष पाये जाने पर भी ब्रिटिश अधिकारी इनकी रिहाई के मामले पर विचार करने से कतरा रहे थे।
तिलक को गिरफ्तारी के बाद पूना की डोंगरी जेल में रखा। यहाँ की जेल व्यवस्था बहुत खराब थी। इनसे नारियल की रस्सी बँटवाने का कार्य कराया जाता, खाने में प्याज की दाल और रोटी दी जाती थी, नहाने के लिये बहुत कम मात्रा में पानी दिया जाता था यहाँ तक कि 1-1 महीने तक कपड़े नहीं धुलते थे जिसके कारण कपड़ों में जुएं पड़ जाती थी।
तिलक कट्टर ब्राह्मण थे। ये प्याज की दाल से खाना नहीं खाते थे, केवल रुखी रोटी खाने से इनका पहले दो महीनों में 30 पौंड वजन घट गया। सभी को लगने लगा था कि इन कठोर परिस्थितियों में तिलक रिहाई के समय तक जीवित रह भी पायेंगे या नहीं।
तिलक के शुभचिंतक इनकी रिहाई के लिये लगातार प्रयत्न कर रहे थे। जेल प्रशासन को लगातार दिये जाने वाले पत्रों के कारण इन्हें डोंगरी जेल से भायखाला और फिर यरवदा जेल में भेज दिया गया। भारत में ही नहीं विदेश में भी तिलक के मामले पर दयालुता से विचार करने की अपील की। प्रोफेसर मैक्समूलर, सर विलियम हंटर, रमेश चन्द्र आदि विद्वानों ने अंग्रेजी सरकार से तिलक के साथ थोड़ी नरमी से बर्ताव करने के लिये विनती करते हुये लिखा कि,
“तिलक जैसे संस्कृत भाषा के पंड़ित व शोधकर्ता को अधिक समय तक कारावास में न रखा जाये।”
जेल में एक साल पूरा होने वाला था। देश विदेश से तिलक की सजा में विचार करने के लिये अर्जी मिलने पर सरकार ने तिलक के सामने शर्त रखी की यदि ये स्वंय लिखकर दे कि ये दुबारा राजनीति में भाग नहीं लेंगे तो इनकी बची हुई सजा को माफ किया जा सकता हैं। लेकिन ये किसी भी हाल में अर्जी लिखकर देने के पक्ष में नहीं थे। किन्तु इनके मित्रों और शुभचिंतकों के आग्रह के कारण इन्होंने लिखित अर्जी दे दी।
सार्वजनिक जीवन की सक्रिय अवधि
तिलक के अर्जी देने पर 6 सितम्बर 1898 को रिहाकर दिया गया। रिहा होने पर सभी वर्गों के नेताओं ने इनका स्वागत किया। देश-विदेश से इन्हें हजारों बधाई संदेश भेजे गये। रिहाई के बाद ये स्वास्थ्य संबंधी सुधार के लिये सिंहगढ़ चले गये। नवम्बर 1898 में इन्होंने मद्रास के कांग्रेस सम्मेलन में भाग लिया। इसके बाद मदुरै, रामेश्वरम् और श्रीलंका होते हुए ये पुणे लौट आये साथ ही 1899 में दोबारा केसरी और मराठा के संपादक के कार्य को संभाला। इन्होंने रिहाई के बाद देशवासियों को अपना सहयोग करने के लिये लेख प्रकाशित किया। ये लेख ‘पुनश्च हरि ओम शीर्षक’ के अन्तर्गत लिखा गया था, जो निम्न था,
“राजद्रोह के मुकदमें के समय जिस प्रकार पूरे देश ने मुझे सहायता की, इस प्रकार देवऋण, पितृऋण व ऋषिऋण के अतिरिक्त एक और ऋण पैदा हो गया है। इस कारण मेरे लिये ये आवश्यक हो जाता है कि मैंने आज तक जैसा जीवन बिताया है वैसा ही भविष्य में भी बिताऊँ।”
बंग-भंग आन्दोलन (1905) और कांग्रेस में फूट
1899 में भारत में गवर्नर के रुप में नियुक्त होकर लार्ड कर्जन भारत आया। इसने भारत आते ही “फूट डालो शासन करों” की नीति के अन्तर्गत बंगाल प्रान्त को दो भागों में बाँट दिया। इस विभाजन के मुख्यतः दो कारण थे, पहला कारण था कि बंगाल में मुस्लिम अधिक होने के बाद भी हिन्दू और मुस्लिम एकता के साथ रहते थे। दूसरा प्रमुख कारण था यहाँ दोनों संप्रादायों को अलग करके देश में व्याप्त हिन्दू-मुस्लिम एकता को खत्म कर दिया जाए ताकि लम्बें समय तक यहाँ शासन किया जा सके। कर्जन ने राज्य की अच्छी व्यवस्था करने की आड़ में बंगाल के दो टुकड़े कर दिये। हिन्दी बाहुल्य क्षेत्र की राजधानी कलकत्ता और मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र की राजधानी ढाका को घोषित किया।
कर्जन के इस बँटवारे का देश व्यापी विद्रोह हुआ। इस बँटवारे की रुप रेखा 1903 में ही बना दी गयी थी और तभी से इसका विरोध किया जा रहा था। लेकिन इसे लागू 1905 में करना निश्चित किया गया। इस दौरान देश में लगभग 500 से अधिक सभायें व विरोध प्रदर्शन हुये।
इसी दौरान लाल, बाल, पाल की तिकड़ी का निर्माण हुआ। जो कांग्रेस के उग्र दल के विचारक माने जाते हैं। इस तिकड़ी में लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिन चन्द्र पाल था। जिसका बंगाल में नेतृत्व अरविन्द घोष कर रहे थे। तिलक ने अपने पत्र केसरी के माध्यम से स्वदेशी, बहिष्कार और स्वराज्य का संदेश लोगों तक पहुँचाया।
कांग्रेस का राष्ट्रवादी दल और उग्रवादी विचारकों का संगठित दल राष्ट्रीय मंच पर खड़ा था जो उदारवादी नेताओँ के यथार्थवादी विचारों से भिन्नता रखता था। नरम दल के नेता तिलक के विचारों से सहमत नहीं हुये जिसके कारण कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में दोनों दलों की फूट सामने आयी। जिसे सूरत फूट 1907 के नाम से जाना गया।
तिलक का देश से निष्कासन
बंगाल विभाजन के समय तिलक के उग्रवादी विचारों के कारण इन्हें राजद्रोह के आरोप में एक बार फिर से 1908 में 6 साल की सजा सुनाकर देश से निष्कासित कर दिया। तिलक को देश से निष्कासित करके माँडले जेल में रखा गया। माडले जेल में रहते हुये तिलक ने दो नये ग्रन्थों गीता-रहस्य और द आर्कटिक होम ऑफ द आर्यन की रचना की। ये दोनों ग्रन्थ तिलक के विशाल ज्ञान, ऐतिहासिक शोध, गम्भीर्यता और उच्च विचारों के परिचायक बने। माण्डले जेल से 1914 में रिहा हुये।
स्वदेश वापसी 1914, होमरुल आन्दोलन 1916 व तिलक की मृत्यु 1920
तिलक मांड़ले से रिहा होकर 1914 में भारत आये। भारत आते ही इन्होंने फिर से राष्ट्रीय हित के लिये कार्य करना शुरु कर दिया। पूना की बहुत सी संस्थाओं ने तिलक के सम्मान में सार्वजनिक सभाओं का आयोजन किया। इन सभाओं में तिलक को आमंत्रित किया गया। इन्होंने सभा को संबोधित करते हुये भाषण दिया, “मेरा देश से 6 साल का निष्कासन मेरे देश प्रेम की परीक्षा था। मैं स्वराज्य के सिद्धान्त को नहीं भूला हूँ। इसके कार्यक्रमों में कोई भी बदलाव नहीं किया जायेगा, ये पहले की तरह ही कार्यान्वित होंगे।”
तिलक ने जेल से बाहर आने के बाद कांग्रेस के दोनों दलों को एक करने का प्रयास किया लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। 1916 में तिलक श्रीमति ऐंनी बेंसेंट द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन से जुड़ गये। जिसका उद्देश्य स्वराज्य की प्राप्ति था। तिलक ने होमरुल के उद्देश्यों से लोगों को परिचित कराने के लिये विभिन्न गाँवों में घूमें। ये अपने कार्यों के माध्यम से अब एक जनप्रिय नेता बन गये।
लोकमान्य बाल गंगधर तिलक ने लीग के उद्देश्यों को स्पष्ट करने के लिये लगभग 100 से भी ज्यादा सभाओं का आयोजन किया। 1919 में जलियावाला बाग हत्या कांड की इन्होंने अपने लेखों के माध्यम से आलोचना की और बहिष्कार के आन्दोलन को जारी रखने की अपील की। इन्होंने इस सन्दर्भ में सांगली, हैदराबाद, कराँची, सोलापुर, काशी आदि स्थानों पर भाषण भी दिये। 1920 तक आते-आते ये काफी कमजोर हो गये थे। 1 अगस्त 1920 को स्वाधीनता के इस महान पुजारी ने इस संसार से अन्तिम विदा ली।
बाल गंगाधर तिलक के अनमोल वचन
- “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूँगा!”
- “मानव प्रकृति ही ऐसी है की हम बिना उत्सवों के नहीं रह सकते! उत्सव प्रिय होना मानव स्वाभाव है! हमारे त्यौहार होने ही चाहियें..”
- “यदि हम किसी भी देश के इतिहास के अतीत में जाएं, तो हम अंत में मिथकों और परम्पराओं के काल में पहुंच जाते हैं जो आखिरकार अभेद्य अन्धकार में खो जाता है।”
- “आपके लक्ष्य की पूर्ति स्वर्ग से आयी किसी अदृश्य शक्ति से नहीं हो सकेगी! आपको ही अपना लक्ष्य प्राप्त करना है! जिसके लिये कार्य करने और कठोर श्रम करने के दिन यही है।”
- “एक बहुत प्राचीन सिद्धांत है कि ईश्वर उनकी ही सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वंय करते हैं! आलसी व्यक्तियों के लिए ईश्वर अवतार नहीं लेता! वह उद्योगशील व्यक्तियों के लिए ही अवतरित होता है! इसलिए कार्य करना शुरु कीजिये!”
- “आप केवल कर्म करते जाइए, उसके फल की चिन्ता मत कीजिये..”
- “कर्म के रास्ते पर गुलाब-जल नहीं छिड़का होता है और ना ही उसमे गुलाब उगते हैं..”
- “हो सकता है कि भगवान की ये ही मर्जी हो कि मैं जिस वजह का प्रतिनिधित्व करता हूँ उसे मेरे आजाद रहने से ज्यादा मेरे पीड़ा में होने से अधिक लाभ मिले।”
- “अपने हितों की रक्षा के लिए यदि हम स्वयं जागरूक नहीं होंगे तो दूसरा कौन होगा? हमे इस समय सोना नहीं चाहिये, हमे अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिये..”
- “जब लोहा गरम हो तभी उस पर चोट कीजिये और आपको निश्चय ही सफलता का यश प्राप्त होगा।”
- “मनुष्य का प्रमुख लक्ष्य भोजन प्राप्त करना ही नहीं है! एक कौवा भी जीवित रहता है और जूठन पर पलता है।”
तिलक का जीवन परिचय एक नजर में
1856 – 23 जुलाई को रत्नागिरी (महाराष्ट्र) में जन्म।
1876 – बी.ए. (गणित) से प्रथम श्रेणी में पास किया।
1879 – एल.एल.बी. प्रथम श्रंणी से पास किया।
1880 – चिपलूणकर और आगरकर के साथ मिलकर “न्यू इंग्लिश स्कूल” की स्थापना।
1881 – लोगों को देश की वास्तविकता से रु-ब-रु करने के लिये ‘केसरी’ और ‘मराठा’ समाचार-पत्रों (साप्ताहिक) का प्रकाशन, 17 जुलाई को बरवै केस में आगरकर के साथ 4 माह की जेल।
1882 – 24 अक्टूबर को जेल से रिहाई।
1884 – डेक्कन एजुकेशन सोसायटी की नींव डाली।
1885 – फर्ग्यूस़न कॉलेज की स्थापना।
1893 – ओरॉयन पुस्तक की रचना की।
1895 – विनिमय बोर्ड के सांसद चुना गया।
1897 – राजद्रोह के आरोप में डेढ़ साल की सजा।
1898 – एक साल की सजा के वाद रिहाई।
1899 – मद्रास के कांग्रेस के सम्मेलन में भाग लिया।
1903 – द आर्कटिक होम ऑफ द आर्यन्स़ की रचना।
1905 – बंगाल विभाजन के विरोध में लेख लिखे, लाल, बाल, पाल की तिगड़ी का जन्म।
1907 – कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में गरम व नरम दल के सदस्यो के बीच मतभेद के कारण कांग्रेस दो दलों में विभक्त हो गयी।
1908 – प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस ने अंग्रेज अधिकारियों पर बम डाला लेकिन इसमें गलती से दो ब्रिटिश महिलाओं की मृत्यु हुई, जिसका कारण तिलक के केसरी समाचार-पत्र में लिखे लेखों को माना और इन पर दुबारा राजद्रोह का मुकदमा चलाकर देश से 6 साल के लिये निष्कासित कर मांडले जेल में डाल दिया।
1909 – मांडले जेल में रहते हुये गीता रहस्य किताब लिखी।
1914 – तिलक की स्वदेश वापसी।
1916 – स्वदेशी के लिये होमरुल लीग की स्थापना और लोगों को जागरुक करने के लिये गाँव-गाँव जाकर लीग के उद्देश्यों से परिचित कराया।
1920 – 1 अगस्त को इस देह का त्याग करके अमरत्व में विलीन।