नेताजी सुभाष चन्द्र बोस (23 जनवरी 1897–18 अगस्त 1945)
गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हुये भारत को आजाद कराने के लिये अनेक देशभक्तों ने अपने-अपने तरीकों से भारत को आजाद कराने की कोशिश की। किसी ने क्रान्ति के मार्ग को अपनाया तो किसी ने अहिंसा और शान्ति के मार्ग को, पर दोनों मार्गों के समर्थकों के संयुक्त प्रयासों से ही भारत की आजादी का मार्ग निर्धारित हुआ।
भारत की आजादी के लिये संघर्ष करते हुये अनेक क्रान्तिकारी भारतीय शहीद हुये। ऐसे ही महान क्रान्तिकारी, भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे सुभाष चन्द्र बोस। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपने कार्यों से अंग्रेजी सरकार के छक्के छुड़ा दिये। इन्होंने अपने देश को आजाद कराने के लिये की गयी क्रान्तिकारी गतिविधियों से ब्रिटिश भारत सरकार को इतना ज्यादा आंतकित कर दिया कि वो बस इन्हें भारत से दूर रखने के बहाने खोजती रहती, फिर भी इन्होंने देश की आजादी के लिये देश के बाहर से ही संघर्ष जारी रखा और वो भारतीय इतिहास में पहले ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हुये जिसने ब्रिटिश भारत सरकार के खिलाफ देश से बाहर रहते हुये सेना संगठित की और सरकार को सीधे युद्ध की चुनौती दी और युद्ध किया। इनके महान कार्यों के कारण लोग इन्हें ‘नेताजी’ कहते थे।
सुभाष चन्द्र बोस से सम्बन्धित प्रमुख तथ्यः
पूरा नाम– सुभाष चन्द्र बोस
अन्य नाम- नेताजी
जन्म– 23 जनवरी 1897
जन्म स्थान– कटक, उड़ीसा
माता-पिता– प्रभावती, जानकीनाथ बोस (प्रसिद्ध वकील)
पत्नी– ऐमिली शिंकल
बच्चे– इकलौती पुत्री अनीता बोस
अन्य करीबी सम्बन्धी– शरत् चन्द्र बोस (बड़े भाई), विभावती (भाभी), शिशिर कुमार बोस (भतीजा)
शिक्षा– मैट्रिक (1912-13), इंटरमिडिएट (1915), बी. ए. आनर्स (1919), भारतीय प्रशासनिक सेवा (1920-21)
विद्यालय– रेवेंशॉव कॉलेजिएट (1909-13), प्रेजिडेंसी कॉलेज (1915), स्कॉटिश चर्च कॉलेज (1919), केंब्रिज विश्वविद्यालय (1920-21)
संगठन– आजाद हिन्द फौज, आल इंडिया नेशनल ब्लाक फॉर्वड, स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार
उपलब्धी– आई.सी.एस. बनने वाले प्रथम भारतीय, दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष, भारत को स्वतंत्र कराने के संघर्ष में 11 बार जेल की एतिहासिक यात्रा, भारतीय स्वतंत्रता के लिये अन्तिम सांस तक प्रयास करते हुये शहीद हुये।
मृत्यु– 18 अगस्त 1945 (विवादित)
मृत्यु का कारण– विमान दुर्घटना
मृत्यु स्थान– ताइहोकू, ताइवान
सुभाष चन्द्र बोस की जीवनी (जीवन परिचय)
प्रारम्भिक या शुरुआती जीवनः
- जन्म एंव बाल्यकाल
आजाद हिन्द फौज के सूत्राधार नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म उड़ीसा राज्य के कटक स्थान पर 23 जनवरी 1897 को हुआ था। इनका परिवार बंगाल का एक सम्पन्न परिवार था। इनके पिता जानकी नाथ बोस बंगाल के एक प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध वकील थे। इनकी माता प्रभावती धार्मिक और पतिव्रता स्त्री थी। ये 14 बहन भाई थे, जिसमें से ये नौंवो स्थान पर थे।
सुभाष चन्द्र बोस का बाल्यकाल बड़ी सम्पन्नता में व्यतीत हुआ। इन्होंने कभी भी किसी भी वस्तु का अभाव नहीं देखा। इनकी आवश्यकता अनुसार प्रत्येक वस्तु इन के पास होती थी। अभाव था तो केवल माता-पिता के वात्सल्य का। इनके पिता अपने पेशे में व्यस्त रहने के कारण परिवार और बच्चों को समय नहीं दे पाते थे और माता इतने बड़े परिवार के पालन पोषण में लगी रहने के कारण इन्हें ध्यान नहीं दे पाती थी जिससे ये बाल्यकाल से ही गम्भीर स्वभाव के हो गये। ये बस अपने बड़े भाई शरत् चन्द्र के करीबी थे और अपनी सभी बातों और निर्णयों पर उनसे सलाह लेते थे।
- पारिवारिक पृष्ठभूमि
सुभाष चन्द्र बोस के पिता जानकी नाथ बोस वास्तविक रुप से बंगाल के परगना जिले के एक छोटे से गाँव के रहने वाले थे। ये वकालत करने के लिये कटक आ गये क्योंकि इनके गाँव में वकालत में सफल होने के कम अवसर थे। लेकिन कटक में इनके भाग्य ने इनका साथ दिया और सुभाष के जन्म से पहले ही ये अपने आपको वकालत में स्थापित कर चुके थे। ये अब तक एक प्रसिद्ध सरकारी वकील बन गये थे तथा नगर पालिका के प्रथम भारतीय गैर सरकारी अध्यक्ष भी चुने गये।
देशभक्ति सुभाष को अपने पिता से विरासत में मिली थी। इनके पिता सरकारी अधिकारी होते हुये भी कांग्रेस के अधिवोशनों में शामिल होने के लिये जाते रहते थे। ये लोकसेवा के कार्यों में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे। ये खादी, स्वदेशी और राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थाओं के पक्षधर थे।
सुभाष चन्द्र बोस की माता प्रभावती उत्तरी कलकत्ता के परंपरावादी दत्त परिवार की बेटी थी। ये बहुत ही दृढ़ इच्छाशक्ति की स्वामिनी, समझदार और व्यवहारकुशल स्त्री थी साथ ही इतने बड़े परिवार का भरण पोषण बहुत ही कुशलता से करती थी।
- प्रारम्भिक शिक्षा
सुभाष चन्द्र बोस की प्रारम्भिक शिक्षा कटक के ही स्थानीय मिशनरी स्कूल में हुई। इन्हें 1902 में प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल में प्रवोश दिलाया गया। ये स्कूल अंग्रेजी तौर-तरीके पर चलता था जिससे इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की अंग्रेजी अन्य भारतीय स्कूलों के छात्रों के मुकाबले अच्छी थी। ऐसे स्कूल में पढ़ने के और भी फायदे थे जैसे अनुशासन, उचित व्यवहार और रख-रखाव आदि। इनमें भी अनुशासन और नियमबद्धता बचपन में ही स्थायी रुप से विकसित हो गयी।
इस स्कूल में पढ़ते हुये इन्होंने महसूस किया कि वो और उनके साथी ऐसी अलग-अलग दुनिया में रहते हैं जिनका कभी मेल नहीं हो सकता। सुभाष शुरु से ही पढ़ाई में अच्छे नंबरों से प्रथम स्थान पर आते थे लेकिन वो खेल कूद में बिल्कुल भी अच्छे नहीं थे। जब भी किसी प्रतियोगिता में भाग लेते तो उन्हें हमेशा शिकस्त ही मिलती।
1909 में इनकी मिशनरी स्कूल से प्राइमरी की शिक्षा पूरी होने के बाद इन्हें रेवेंशॉव कॉलेजिएट में प्रवोश दिलाया गया। इस स्कूल में प्रवोश लेने के बाद बोस में व्यापक मानसिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तन आये। ये विद्यालय पूरी तरह से भारतीयता के माहौल से परिपूर्ण था। सुभाष पहले से ही प्रतिभाशाली छात्र थे, बस बांग्ला को छोड़कर सभी विषयों में अव्वल आते थे। इन्होंने बांग्ला में भी कड़ी मेहनत की और पहली वार्षिक परीक्षा में ही अच्छे अंक प्राप्त किये। बांग्ला के साथ-साथ इन्होंने संस्कृत का भी अध्ययन करना शुरु कर दिया।
रेवेंशॉव स्कूल के प्रधानाचार्य (हेडमास्टर) बेनीमाधव दास का सुभाष के युवा मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। माधव दास ने इन्हें नैतिक मूल्यों पर चलने की शिक्षा दी साथ ही ये भी सीख दी कि असली सत्य प्रकृति में निहित है अतः इसमें स्वंय को पूरी तरह से समर्पित कर दो। जिसका परिणाम ये हुआ कि ये नदी के किनारों और टीलों व प्राकृतिक सौंन्दर्य से पूर्ण एकांत स्थानों को खोजकर ध्यान साधना में घंटों लीन रहने लगे।
सुभाष चन्द्र के सभा और योगाचार्य के कार्यों में लगे रहने के कारण इनके परिवार वाले व्यवहार से चिन्तित होने लगे क्योंकि ये अधिक से अधिक समय अकेले बिताते थे। परिवार वालों को इनके भविष्य के बारे में चिन्ता होने लगी कि इतना होनहार और मेधावी होने के बाद भी ये पढ़ाई में पिछड़ न जाये। परिवार की आशाओं के विपरीत 1912-13 में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा में विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया जिससे इनके माता-पिता बहुत खुश हुये।
- स्कूली जीवन में प्रथम राजनीति में प्रवेश
स्कूल के अन्तिम दिनों में सुभाष को प्रथम राजनीतिक प्रोत्साहन मिला जब इनसे मिलने कलकत्ता के एक दल (आदर्श दल) का दूत आया। उस दल का दोहरा उद्देश्य था- देश के नागरिकों का आध्यात्मिक उत्थान और राष्ट्र की सेवा। शीघ्र ही ये इस दल से जुड़ गये क्योंकि इनके विचार इस दल के उद्देश्यों से बहुत हद तक मिलते थे। इस दल का मुखिया एक डॉक्टर था जिससे बहुत लम्बे समय तक बोस सम्पर्क में रहे। ये सुभाष चन्द्र बोस के जीवन का प्रथम राजनीतिक अनुभव था जो भविष्य में इनके बहुत काम आया।
- प्रारम्भिक परिवोश का विचारों पर प्रभाव
सुभाष चन्द्र बोस को पारिवारिक वातावरण में माता-पिता का बहुत अधिक प्रेम नहीं मिला जिससे अधिकांश समय अकेले व्यतीत करने के कारण बाल्यकाल में ही इनका स्वभाव गम्भीर हो गया। बचपन से ही ये मेहनती और दृढ़ संकल्प वाले थे। जब ये ईसाई मिशनरी के प्राइमरी स्कूल में पढ़ रहे थे इसी समय इन्होंने अपने व अपने सहपाठियों के बीच अन्तर को महसूस करते हुये पाया कि जैसे कि ये दो विभिन्न समाजों के बीच रह रहे हों।
रेवेंशॉव स्कूल में हेडमास्टर बेनीमाधव के सम्पर्क में आने पर ये अध्यात्म की ओर मुड़ गये। 15 साल की उम्र में इन्होंने विवोकानंद के साहित्यों का गहन अध्ययन किया और उनके सिद्धान्तों को अपने जीवन में अपनाया। इन्होंने तय किया आत्मा के उद्धार के लिये खुद परिश्रम करना जीवन का उद्देश्य होना चाहिये साथ ही मानवता की सेवा, देश की सेवा है, जिस में अपना सब कुछ समर्पित कर देना चाहिये। विवोकानंद के जीवन से प्रेरणा लेकर इन्होंने ‘रामकृष्ण-विवोकानंद युवाजन सभा’ का गठन किया, जिसका परिवार वालों तथा समाज ने विरोध किया फिर भी इन्होंने सभा के कार्यों को जारी रखा। इस तरह युवा अवस्था में पहुँचने के समय में ही एक सीमा तक मनोवैज्ञानिक विचारों की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी।
कलकत्ता में उच्च शिक्षा व सार्वजनिक जीवन
मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद इनके परिवार जनों ने इन्हें आगे की पढ़ाई के लिये कलकत्ता भेज दिया। 1913 में इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज प्रेजिडेंसी में एडमिशन (प्रवोश) लिया। सुभाष चन्द्र बोस ने यहाँ आकर बिना किसी देर के सबसे पहले आदर्श दल से सम्पर्क बनाया जिसका दूत इन से मिलने कटक आया था। उस समय इनके कॉलेज के छात्र अलग-अलग गुटों (दलों) में विभक्त थे। जिसमें से एक गुट आधुनिक ब्रिटिश राज-व्यवस्था की चापलूसी करता था, दूसरा सीधे-सादे पढ़ाकू छात्रों का था, एक दल सुभाष चन्द्र बोस का था- जो स्वंय को रामकृष्ण-विवोकानन्द का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी मानते थे और एक अन्य गुट था– क्रान्तिकारियों का गुट।
कलकत्ता का सामाजिक परिवोश कटक के छोटे से कस्बे के वातावरण से बिल्कुल अलग था। यहाँ की आधुनिक जीवन की चमक-धमक ने अनेकों विद्यार्थियों के जीवन को आकर्षित कर विनाश की ओर ले गयी थी, लेकिन सुभाष का निर्माण तो अलग ही मिट्टी से हुआ था। ये कलकत्ता कुछ दृढ़ विचारों, सिद्धान्तों और नये उद्देश्यों के साथ आये थे। इन्होंने पहले ही निश्चय कर लिया था कि ये लकीर के फकीर नहीं बनेंगें। ये जीवन को गम्भीरता से अपनाना जानते थे। कॉलेज का जीवन शुरु करते समय इन्हें इस बात का अहसास था कि जीवन का लक्ष्य भी है और उद्देश्य भी।
जब सुभाष कटक से कलकत्ता आये थे तो इनका स्वभाव आध्यात्मिक था। ये समाज सेवा करना चाहते थे और समाज सेवा योग साधना का ही अभिन्न अंग है। ये अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये ऐतिहासिक और धार्मिक स्थानों पर घूमने जाते थे। अपने कॉलेज के समय में बोस अरविन्द घोष के लेखन, दर्शन और उनकी यौगिक समन्वय की धारणा से प्रेरित थे। इस समय तक इनका राजनीति से कोई सीधा संबंध नहीं था। ये तरह-तरह के धार्मिक और सामाजिक कार्यों में खुद को व्यस्त रखते थे। इन्हें कॉलेज की पढ़ाई की कोई परवाह नहीं रहती क्योंकि ज्यादातर विषयों के लेक्चर इन्हें ऊबाऊ लगते थे। ये वाद-विवादों में भाग लेते थे, बाढ़ और अकाल पीड़ितों के लिये के लिये चन्दे इकट्ठा करने जैसे समाजिक कार्यों को करने में लगे रहने के कारण 1915 की इंटरमीडियेट की परीक्षा में ज्यादा अच्छे नम्बर प्राप्त नहीं कर पाये। इसके बाद इन्होंने आगे की पढ़ाई के लिये दर्शनशास्त्र को चुना और पूरी तरह से पढ़ाई में लग गये।
प्रेजिडेंसी कांड़ (1916) व शिक्षा में उत्पन बाधाएँ
बी. ए. आनर्स (दर्शन-शास्त्र) करते समय सुभाष चन्द्र बोस के जीवन में एक घटना घटी। इस घटना ने इनकी विचारधारा को एक नया मोड़ दिया। ये बी. ए. आनर्स (दर्शनशास्त्र) के प्रथम वर्ष के छात्र थे। लाइब्रेरी के स्व-अध्ययन कक्ष में पढ़ते हुये इन्हें बाहर से झगड़े की कुछ अस्पष्ट आवाजें सुनायी दे रही थी। बाहर जाकर देखने पर ज्ञात हुआ कि अंग्रेज प्रोफेसर ई. एफ. ओटेन ने इन्हीं के क्लास के कुछ छात्रों को पीटाई कर रहे थे। मामले की जाँच करने पर पता चला कि प्रोफेसर ओटेन की क्लास से लगे बरामदे (कॉरिड़ोर) में बी. ए. प्रथम वर्ष के कुछ छात्र शोर कर रहे थे, लेक्चर में बाधा उपस्थित करने के जुर्म में प्रोफेसर ने पहली लाइन में लगे छात्रों को निकाल कर पीट दिया था।
सुभाष चन्द्र अपनी क्लास के प्रतिनिधि थे। इन्होंने छात्रों के अपमान करने की इस घटना की सूचना अपने प्रधानाचार्य को दी। अगले दिन, इस घटना के विरोध में छात्रों द्वारा कॉलेज में सामूहिक हड़ताल का आयोजन किया गया, जिसका नेतृत्व सुभाष चन्द्र बोस ने किया। ये कॉलेज के इतिहास में पहली बार था जब छात्रों ने इस प्रकार की हड़ताल की थी। हर तरफ इस घटना की चर्चा हो रही थी। मामला अधिक न बढ़ जाये इसलिये अन्य शिक्षकों और प्रबंध समिति की मध्यस्था से उस समय तो मामला शान्त हो गया, लेकिन एक महीने बाद उसी प्रोफेसर ने दुबारा इनके एक सहपाठी को पीट दिया जिस पर कॉलेजों के कुछ छात्रों ने कानून को अपने हाथों में लिया जिसका परिणाम ये हुआ कि छात्रों ने प्रोफेसर को बहुत बुरी तरह पीटा। समाचार पत्रों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक सभी में इस घटना ने हलचल मचा दी।
छात्रों पर ये गलत आरोप लगाया गया कि प्रो. ओटेन पर हमला करते समय उन्हें सीढ़ियों से धक्का देकर नीचे गिराया गया था। सुभाष इस घटना के चश्मदीद गवाह थे। वो जानते थे कि ये आरोप सिर्फ एक कोरा झूठ है, एक प्रत्यक्षदर्शी (चश्मदीद गवाह) होने के नाते बिना किसी ड़र के विरोधाभास के ये बात दावो के साथ कह सकते थे। छात्रों की निष्पक्षता के लिये ये बात साफ होनी आवश्यक थी। लेकिन ये घटना सरकार और कॉलेज की अध्यापकों की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गयी। छात्रों की ओर से किसी भी प्रकार की सफाई की अवहेलना करते हुये कॉलेज के प्रधानाचार्य ने प्रबंध समिति के सम्मानित व्यक्तियों से सलाह करके कॉलेज के शरारती बच्चों को स्कूल से निकाल दिया। इन निकाले गये छात्रों की हिट लिस्ट में सुभाष चन्द्र बोस का नाम भी शामिल था। उन्होंने सुभाष को बुलाकर कहा–
“बोस! तुम कॉलेज में सबसे ज्यादा परेशानी उत्पन्न करने वाले (उपद्रवी) छात्र हो। मैं तुम्हें निलम्बित (सस्पेंड) करता हूँ।
सुभाष– धन्यवाद।”
इतना कहकर वो घर आ गये। इस निर्णय के बाद प्रबंध समिति ने प्रधानाचार्य के इस निर्णय पर मोहर लगा दी। इन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। सुभाष चन्द्र ने विश्वविद्यालय से किसी अन्य कॉलेज में पढ़ने की अनुमति माँगी जिसे अस्वीकार कर दिया गया। इस तरह इन्हें पूरे विश्वविद्यालय से निष्काषित कर दिया गया।
कुछ राजनीतिज्ञों ने इसे प्रधानाचार्य के अधिकार के बाहर का निर्णय कहा जिसे जाँच कमेटी ने अपने हाथ में ले लिया। जाँच कमेटी के सामने इन्होंने छात्रों का प्रतिनिधित्व किया और कहा कि वो प्रोफेसर पर हमले को सही नहीं मानते पर उस समय छात्र इतने भड़के हुये थे कि उन्हें नियंत्रित करना बहुत मुश्किल था। इसके बाद इन्होंने कॉलेज में अंग्रेजों द्वारा किये जाने वाले बुरे व्यवहार का वर्णन किया। जब कमेटी की रिपोर्ट आयी तो छात्रों के पक्ष में कोई भी शब्द नहीं था, सिर्फ सुभाष चन्द्र के बारे में ही जिक्र था।
इस तरह उनके आगे की पढ़ाई करने के रास्ते बन्द हो गये। लेकिन कठिनाई के इस समय में उनके परिवार वालों ने उनका साथ दिया। इनके संबंधी जानते थे कि वो जो कर रहे हैं, सही कर रहे है। सुभाष को भी अपने किये पर कोई पछतावा नहीं था। आगे की पढ़ाई की कोई सम्भावना न रहने पर ये पूरी तरह से समाज के कार्यों में लग गये। इस घटना ने इनके जीवन को पूरी तरह से बदल कर रख दिया। इनकी सोच और विचारधारा में काफी परिवर्तन हो गये। इस समय में इन्होंने अपने मनोभावों को जानने के लिये आत्म विश्लेषण किया।
स्काटिश चर्च में प्रवोश (1917)
लगभग एक वर्ष की उथल-पुथल के बाद विश्व विद्यालय में प्रवोश के लिये ये पुनः कलकत्ता आ गये। यहाँ अधिकारियों के निर्णय की प्रतीक्षा करते समय 49 वीं बंगाल रेजीमेंट में भर्ती होने की कोशिश की, लेकिन खराब आँखों के कारण भर्ती में असफल रहे। बाद में इन्हें सूचना दी गयी कि ये किसी अन्य विद्यालय से प्रवोश लेकर पढ़ सकते हैं। इस सूचना के बाद ये स्कॉटिश चर्च कॉलेज के प्रधानाचार्य (डॉ. अर्कहार्ट) से मिले और उन्हें बताया कि वो दर्शन शास्त्र में आनर्स करना चाहते है। अर्कहार्ट बहुत ही व्यवहार कुशल और दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखने वाले व्यक्ति थे। वो सुभाष के व्यवहार से प्रभावित हुये और उन्हें प्रवोश की अनुमति दे दी। डॉ. अर्कहार्ट दर्शन शास्त्र के अत्यंत योग्य अध्यापक भी थे।
सुभाष अपने जीवन में कुछ नये अनुभव प्राप्त करना चाहते थे और कुछ नया और चुनौती पूर्ण करना चाहते थे। इस समय ब्रिटिश भारत सरकार ने इंडिया डिफेंस की फोर्स की एक विश्वविद्यालय स्तर पर प्रादेशिक सेना (टेरिटोरियल आर्मी) के गठन की स्वीकृति दे दी। इसमें भर्ती होने के मापदण्ड सेना में भर्ती करने जितने कड़े नहीं थे अतः इन्हें भर्ती कर लिया गया। इन्होंने 4 महीने के शिविर के जीवन और 3 सप्ताह का मसकट (छोटी बन्दूक) के अभ्यास के बाद बंगाली छात्रों के लिये बनी अवधारणा कि “बंगाली सेना में अच्छा प्रदर्शन नहीं करते” को गलत सिद्ध कर दिया।
कॉलेज के चौथे साल में सुभाष पूरी तरह से पढ़ाई में लग गये। 1919 में इन्होंने प्रथम श्रेणी में आनर्स पास किया। ये विश्व विद्यालय स्तर पर दूसरे स्थान पर रहे।
परिस्थितिवश इंग्लैण्ड जाने का निश्चय (1919)
दर्शन शास्त्र से बी. ए. करने के बाद सुभाष चन्द्र बोस का झुकाव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान की ओर हो गया। उन्होंने महसूस किया कि उनके जीवन की समस्याओं के समाधान के लिये दर्शनशास्त्र उपयुक्त नहीं है। दर्शनशास्त्र से उनका मोह टूट चुका था अतः वो मनौविज्ञान से एम. ए. करना चाहते थे।
इनके पिता जानकी नाथ कलकत्ता आये हुये थे और इनके बड़े भाई शरत् चन्द्र के पास रुके हुये थे। एक शाम इनके पिता ने इन्हें बुलाया और कहा कि क्या वो आई.सी.एस. की परीक्षा देना चाहेंगे। अपने पिता के इस फैसले से इन्हें बहुत झटका लगा। इनकी सारी योजनाओं पर पानी फिर गया। इन्हें अपना निर्णय बताने के लिये 24 घंटे का समय दिया गया। इन्होंने कभी अपने सपने में भी अंग्रेज सरकार के अधीन कार्य करने के लिये नहीं सोचा था, लेकिन परिस्थतियों के सामने मजबूर होकर इन्होंने ये निर्णय ले लिया। इनके इस निर्णय के बाद एक सप्ताह के अन्दर ही पासपोर्ट बनवाकर इंग्लैण्ड जाने वाले जहाज पर व्यवस्था करा कर इनको भेज दिया गया। वो भारत से इंग्लैण्ड जाने के लिये 15 सितम्बर को रवाना हुये।
प्रशासनिक सेवा की तैयारी
इंग्लैण्ड जाकर आई.सी.एस. की परीक्षा देने के अपने पिता के फैसले को मानने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं था अतः भाग्य के भरोसे ये इंग्लैण्ड चले गये। भारत से इंग्लैण्ड जाते समय इनके पास आई.सी.एस. की परीक्षा के लिये केवल 8 महीने थे और उम्र के अनुसार ये इनका पहला और आखिरी मौका भी था। इनका जहाज निर्धारित समय से एक हफ्ते बाद इंग्लैण्ड पहुँचा। ये 25 अक्टूबर को इंग्लैण्ड पहुँचे थे।
इंग्लैण्ड पहुँचने से पहले ही इनका अध्ययन सत्र शुरु हो गया जिससे किसी अच्छे कॉलेज में प्रवेश का मौका मिलना भी कठिन था। अतः अपनी इस समस्या को लेकर सुभाष चन्द्र बोस इंडिया हाऊस के भारतीय विद्यार्थियों के सलाहकार से मिलने गये। इस मुलाकात से इन्हें भी निराशा ही हाथ लगी। चारों ओर से किसी भी प्रकार के सहयोग की उम्मीद न होने पर ये सीधे कैंम्ब्रिज यूनिवर्सिटी गये। किट्स विलियम हॉल के सेंसर (परीक्षा में बैठने वाले छात्रों की योग्यता का आंकलन करने वाला बोर्ड) ने इनकी समस्याओं को देखते हुये प्रवेश कर लिया और 1921 जून में होने वाली परीक्षा के लिये छूट भी प्रदान कर दी।
सिविल परीक्षा निकट होने के कारण इन्होंने अपना सारा समय तैयारी में लगा दिया। मानसिक और नैतिक विज्ञान (आनर्स) की तैयारी के लिये लेक्चर लेने के साथ ही अपने पाठ्यक्रम से संबंधित इंडियन मजालिस और यूनियन सोसायटी के कार्यक्रमों में भाग भी लेते थे। अपने लेक्चर के घंटों के अतिरिक्त भी इन्हें पढ़ाई करनी पड़ती थी, जितनी मेहनत से ये पढ़ाई कर सकते थे उतनी मेहनत से पढ़ाई की। पुरानी सिविल सर्विस के रेंग्युलेसन के अनुसार इन्हें लगभग 8-9 अलग-अलग विषयों को पढ़ना होता था।
अपनी पढ़ाई के साथ-साथ ही इन्होंने वहाँ के बदले हुये परिवेश को बहुत ध्यान से देखा। इंग्लैण्ड में विद्यार्थियों को प्राप्त स्वतंत्रता, सम्मान और प्रतिष्ठा ने इन्हें बहुत प्रभावित किया क्योंकि यहाँ की परिस्थिति भारत की परिस्थितियों से बहुत ज्यादा अलग थी। ये यहाँ यूनियन सोसायटी के वाद-विवाद आयोजनों में सांसदों या मंत्रियों की उपस्थिति में बिना किसी डर के अपने विचारों को रखते थे। इन्होंने देखा कि राजनीतिक दलों में लेबर पार्टी के सदस्य भारतीय समस्याओं के लिये दया भाव रखते थे।
इंड़ियन सिविल सर्विस की परीक्षा जुलाई 1920 में शुरु हुई और लगभग एक महीने तक चली। सुभाष चन्द्र बोस को परीक्षा में पास होने की कोई उम्मीद नहीं थी अतः अपने घर के लिये चिट्ठी लिखी कि इन्हें अपने पास होने की कोई उम्मीद नहीं है और ये अगले साल की ट्राईपास की तैयारी में लगे हुये हैं। सितम्बर के मध्य में जब रिजल्ट आया तो इनके मित्र ने इन्हें तार द्वारा बधाई दी। अगले दिन इन्होंने अखबार में आई.सी.एस. के सफल उम्मीदवारों में अपना नाम देखा। इन्होंने योग्यता सूची में चौथा स्थान प्राप्त किया था।
आई.सी.एस. की परीक्षा का परिणाम देखने के बाद सुभाष चन्द्र बोस को पास होने की खुशी हुई क्योंकि ये अब अपने देश भारत वापस लौट सकते थे। लेकिन इस परीक्षा के पास होते ही अब एक विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हो गयी। ये स्वामी विवोकानंद और रामकृष्ण के आदर्शों को मानने वाले थे ऐसी स्थिति में इस नौकरी को करना अपने आदर्शों के खिलाफ समझते थे। इस विरोधाभास की स्थिति में बोस ने अपने बड़े भाई शरत् चन्द्र को पत्र लिखकर अपने नौकरी न करने के फैसले के बारे में बताया और उन्हें खत लिखने के 3 हफ्ते के बाद 22 अप्रैल 1921 को बोस ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फार इंडिया ई.एस.मांटेग्यू को पत्र लिखकर परिवीक्षाधीन अफसरों (प्रोबेशनर्स) की सूची से अपना नाम वापस लेने की घोषणा कर दी।
आई.सी.एस. की नौकरी छोड़कर बोस ने इंग्लैण्ड के भारतीय समाज में हलचल मचा दी। चारों तरफ इनके इस निर्णय की चर्चा होने लगी। सुभाष इस वाहवाही और सनसनी दोंनो से बचना चाहते थे। ये कार्य तो बोस ने अपने आत्म सुधार के एक प्रयास के रुप में किया था। इस तथ्य को बोस ने अपने बड़े भाई को लिखे पत्र में स्पष्ट किया है–
“आपने अपने पत्रों में मेरे बारे में बहुत अच्छी-अच्छी बातें की है, जिनमें से जो मुझे मालूम है उनका मैं बहुत कम पात्र हूँ।………………..मैं जानता हूँ कि मैने कितनों का दिल तोड़ा है, कितने बड़ों की आज्ञा का उल्लंघन किया है लेकिन जोखिम भरी इस प्रतिज्ञा के समय मेरी यही प्रार्थना है कि ये सब हमारे प्यारे देश की भलाई में समा जाये।”
भारत आकर महात्मा गाँधी और देशबन्धु से मुलाकात
सुभाष चन्द्र मनोविज्ञान एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास परीक्षा देने के तुरंत बाद जून 1921 में भारत वापस आ गये और राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने लगे। जिस जहाज से बोस भारत आ रहे थे उसी जहाज में रविन्द्र नाथ टैगोर भी थे। टैगोर जी ने इन्हें भारत में गाँधी से मुलाकात करने की सलाह दी थी। 16 जुलाई 1921 को बम्बई पहुँचने पर इन्होंने गाँधी जी से मुलाकात की। इस मुलाकात में बोस ने गाँधी के आन्दोलन की रणनीति और सक्रिय कार्यक्रम की स्पष्ट जानकारी जानना चाहते थे क्योंकि वो (गाँधी) आन्दोलन के सर्वोच्च नेता थे।
सुभाष चन्द्र बोस गाँधी से आन्दोलनों के उन निर्धारित क्रमबद्ध चरणों को जानना चाहते थे जिनका प्रयोग करके अंग्रेजों से सत्ता प्राप्त करने में सफल हो सके। इन्होंने आन्दोलन के प्रत्येक विषय से संबंधित सवालों की छड़ी लगा दी। गाँधी ने इनके सभी सवालों का जबाब धैर्य पूर्वक दिया लेकिन कर न देने की मुहिम से संबंधित सभी सवालों के जबाबों के अतिरिक्त और अन्य किसी भी आन्दोलन के स्पष्ट जबावों से वो बोस को सन्तुष्ट न कर सके।
महात्मा गाँधी से उनकी पहली मुलाकात बहुत अच्छी नहीं रही। वो जिन विषयों को जानना चाहते थे गाँधी उनसे संबंधित जबावों से सुभाष को आन्दोलनों की सही दिशा का ज्ञान नहीं हो पाया। कर न देने के आन्दोलन की रणनीति को छोड़कर अन्य किसी भी आन्दोलन की रणनीति प्रभावी नहीं थी। कुल मिलाकर गाँधी से मुलाकात निराशा जनक रही।
महात्मा गाँधी से मिलने के बाद ये तुरन्त सी.आर.दास (देशबन्धु) से मिलने के लिये कलकत्ता चले गये। पर इनकी मुलाकात देशबन्धु से नहीं हो पायी क्योंकि वो दौरे पर गये हुये थे। कुछ समय इंतजार करने के बाद इनकी भेंट दास से हुई जो बहुत हद तक निर्णायक भी रही। इन्होंने देशबन्धु जी से मुलाकात करके महसूस किया कि दास जानते हैं कि वो क्या करने जा रहें हैं और इसे प्राप्त करने के लिये कौन कौन सी रणनीतियों को अपनाने से सफलता मिलेगी। दास अपने लक्ष्य की उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये अपना सब कुछ त्याग करने के लिये तैयार थे, जिसके कारण वो दूसरों को भी सर्वस्व त्याग के लिये मांग कर सकते थे।
सुभाष चन्द्र बोस देशबन्धु चितरंजन दास से मिलकर बहुत प्रभावित हुये। उनसे मिलकर बोस को ऐसा लगा कि अपने जीवन के उद्देश्य प्राप्ति के रास्ते के साथ-साथ गुरु भी प्राप्त कर लिया, जिसका ये जीवन भर अनुसरण कर सकेंगे। 1921 में देश के कोने कोने में तिहरे बहिष्कार की लहर थी। वकील न्यायालाय की प्रक्रिया में भाग न लेकर न्यायिक व्यवस्था का बहिष्कार कर रहे थे, छात्रों ने विद्यालयों में जाना छोड़ दिया, कांग्रेसी नेताओं ने विधान मंडल की प्रक्रिया में भाग लेना बन्द कर दिया। लोग इसमें बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे थे। देशवासियों में राष्ट्र प्रेम की भावना उमड़ रही थी। ऐसे समय में देशबन्धु ने अपने नये युवा सहयोगी को तहे दिल से अपनाया और उन्हें बंगाल प्रान्त की कांग्रेस कमेटी तथा राष्ट्रीय सेवा दल का प्रचार प्रधान बनाने के साथ ही नये खुले नेशनल कॉलेज का प्रिंसीपल भी नियुक्त कर दिया। अपनी योग्यता और लगन से इतने सारे दायित्वों को कुशलता पूर्वक निभाकर बोस ने सभी को प्रभावित कर दिया।
नवम्बर 1921 में ब्रिटिश राजसिंहासन के वारिस प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत आने की घोषणा की गयी। कांग्रेस ने प्रिंस के बम्बई में उतरने के दिन सम्पूर्ण हड़ताल का आयोजन किया। कलकत्ता में भी अन्य नगरों की तरह अवसर के अनुकूल प्रतिक्रिया हुई। ऐसा लगने लगा था कि जैसे सुभाष चन्द्र के नेतृत्व कांग्रेस के स्वंय सेवकों ने ही सारे शहर को सम्भाल लिया हो।
सुभाष चन्द्र बोस का आन्दोलन के मुखिया के रुप में चयन और गिरफ्तारी
जब ब्रिटिश सरकार ने प्रिंस के आने की घोषणा की तो सारे देश में जगह-जगह कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा हड़तालों और बन्द का आयोजन किया गया, जिससे सरकार ने कांग्रेस सरकार को ही गैरकानूनी घोषित कर दिया। इस बात ने आग में घी डालने का कार्य किया। प्रदेश की कांग्रेस समिति ने सारे अधिकार अपने अध्यक्ष सी.आर.दास को सौंप दिये और इन्होंने बोस को आन्दोलन का मुखिया बना दिया। प्रान्त में आन्दोलन को संचालित करने में बोस ने अभूतपूर्व नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया।
आन्दोलन दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा था। उस समय तो ये आन्दोलन और भी तेज हो गया जब सी.आर.दास की पत्नी वासन्ती देवी को उनकी सहयोगियों के साथ गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। इससे खुद की गिरफ्तारी देने वाले युवाओं और युवतियों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हुई। 1921 के दूसरे हफ्ते में देशबन्धु और सुभाष चन्द्र के साथ अन्य नेताओं को भी कैद कर लिया गया। उन्हें बाद में छह महीने की सजा हुई। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेते हुये ये सुभाष चन्द्र बोस की पहली गिरफ्तारी थी।
भारतीय राजनीति के क्षेत्र में सुभाष का प्रशिक्षण
स्वदेश लौटने के बाद सुभाष भारत के दो महान राजनीति के नायक गाँधी व देशबन्धु से मिले। गाँधी से मिलने पर इन्हें निराशा मिली। लेकिन जब ये देशबन्धु सी.आर.दास से मिले तो उनके विचारों और कार्यों से इतने प्रभावित हुये कि उन्हें अपना गुरु बना लिया। एक सच्चे शिष्य की भाँति वो देशबन्धु के पद चिन्हों पर चलने लगे। शीघ्र ही इन्होंने अपने नेतृत्व के द्वारा अपनी योग्यता का लोहा मनावा लिया।
कलकत्ता में कांग्रेस के बहिष्कार आन्दोलन के दौरान देशबन्धु और बोस के साथ अन्य सदस्यों को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। इन्हें कलकत्ता की अलीपुर सेंट्रल जेल में रखा गया। यहाँ देशबन्धु के सानिध्य में रहकर इन्होंने उनके नेतृत्वकारी गुणों का गहन विश्लेषण किया तथा ये जानने के कोशिश की किन कारणों से सभी लोगों तथा अपने अनुयायियों पर उनका आकर्षण छाया रहता है। बोस के आने वाले जीवन में उनका ये अनुभव बहुत उपयोगी साबित हुआ। बंगाल के नेतृत्व के दायित्व के समय तथा आजाद हिन्द फौज के गठन के समय इस अनुभव से इन्हें बहुत ज्यादा सहायता मिली। बंदी जीवन में देशबन्धु के साथ निकटता से बोस को उनके व्यक्ति पक्ष को समझने का मौका मिला। चितरंजन दास का मानना था कि जिंदगी राजनीति से बड़ी है और जीवन के हर उतार-चढ़ाव में ये इस पर पूरी तरह से अमल भी करते थे।
कांग्रेस में गतिरोध व स्वराज्य पार्टी का गठन
1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद गाँधी ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया। उस समय सुभाष चन्द्र बोस और देशबन्धु दोनों जेल में थे। उन दोनों को ही इस निर्णय से बहुत दुख हुआ। लोगों में उमड़ती हुई आशा, निराशा में बदल गयी।
दिसम्बर 1922 में कांग्रेस का गया (बिहार) अधिवेशन आयोजित किया गया। इसकी अध्यक्षता सी.आर.दास ने की। इस अधिवोशन में कांग्रेस के सभी सदस्यों मे कुछ मुद्दों पर गतिरोध उत्पन्न हो गया। देशबन्धु के समर्थक परिवर्तन चाहते थे और गाँधी के समर्थक किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहते थे। देशबन्धु का प्रस्ताव गिर गया और उनकी अध्यक्ष के रुप में स्थिति कमजोर हो गयी। दूसरी तरफ मोती लाल नेहरु ने कांग्रेस मुक्त स्वराज पार्टी के गठन की घोषणा कर दी। इस तरह देशबन्धु कांग्रेस से अलग होकर स्वराज्य पार्टी के अध्यक्ष नियुक्त किये गये। सुभाष चन्द्र इन सभी गतिविधियों में अपने गुरु के साथ थे।
1923 के मध्य में स्वराज्य पार्टी ने अपनी नेतृत्व से संगठन को मजबूत आधार दिया। इसी साल देशबव्धु की अध्यक्षता और सुभाष के प्रबंधन में दैनिक अंग्रेजी पत्र “फारवर्ड” का प्रकाशन किया। जो बहुत ही कम अवधि में देश का प्रमुख दैनिक पत्र बन गया। बोस ने स्वराज्य के कार्यों के साथ ही युवा संगठन की योजना को भी आगे बढ़ाया। इन्होंने ऑल बंगाल यूथ लीग का भी गठन किया, जिसका अध्यक्ष भी इन्हीं को बनाया गया। 1923 में ही इन्हें पार्टी संगठन ने एक महत्वपूर्ण पद प्रदान किया। इन्हें बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी का महासचिव बना दिया गया।
कलकत्ता नगर निगम मुख्य कार्यकारी अध्यक्ष के रुप में
1924 के कलकत्ता नगर निगम के घोषित चुनावों में स्वराज्य पार्टी ने भाग लेने का निश्चय किया जिसमें हिन्दू तथा मुस्लिम सीटों पर पर्याप्त बहुमत मिला और देशबन्धु प्रथम महापौर चुने गये। देशबन्धु के आग्रह पर सुभाष चन्द्र वोस को मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। अंग्रेज सरकार इस नियुक्ति से बहुत ज्यादा चिढ़ गयी और इन्हें मंजूरी प्रदान करने में बहुत आनाकानी की।
बोस द्वारा मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रुप में किये गये कार्यों के द्वारा भारत में नागरिक उन्नति के नये युग की नींव रखी गयी। पहली बार ख़ादी नगर निगम के कर्मचारियों की वर्दी बनी, ब्रिटिश (बरतानवी) नामों से प्रसिद्ध कई सड़कों और पार्कों के नाम महान भारतीय व्यक्तित्वों के नाम पर रखे गये, एक योग्य शिक्षा अधिकारी की देखभाल में निगम शिक्षा विभाग की स्थापना की गयी, निःशुल्क प्रारम्भिक शिक्षा की शुरुआत हुई, नगर निगम द्वारा संचालित स्वास्थ्य समितियाँ गठित की गयीं, गरीबों के लिये प्रत्येक मंडल में फ्री मेडिकल स्टोर खोले गये और कुछ स्थानों पर बाल चिकित्सालय भी खोले गये जहां जरुरतमंद बच्चों को दूध भी दिया जाता था।
सुभाष चन्द्र बोस हर जगह इन योजनाओं के क्रियान्वयन का निरीक्षण करते रहते और इन सभी आवश्यकताओं के अतिरिक्त जल आपूर्ति, विद्युत आपूर्ति, सड़क मरम्मत के कार्यों का भी निरीक्षण करते थे। थोड़े ही समय में इन्होंने नगर निगम के कार्यों को नयी दिशा दे दी। जगह-जगह सम्मान समारोह में आने वाले उच्च पद के ब्रिटिश अधिकारियों के स्थान पर शहर में आने वाले राष्ट्रवादी नेताओं का स्वागत सत्कार किया जाने लगा। जन-जागृति के लिये “कलकत्ता म्यूनिसिपल गैजेट” सप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरु कर दिया गया। सुभाष चन्द्र बोस अपने खर्च के लिये आधा वेतन रखकर शेष दान कर देते थे।
सुभाष चन्द्र बोस का निर्वासन
स्वराज्य पार्टी के बढ़ते हुये प्रभुत्व को अंग्रेज सरकार किसी भी तरह हजम नहीं कर पा रही थी। अंग्रेज कैसे भी करके इसकी नींव को खोखली करना चाहते थे। कार्यकारी अध्यक्ष के रुप में सुभाष द्वारा किये गये कार्यों से आग में घी डालने का काम किया। उनकी बढ़ती हुई ख्याति ने सरकार की नींद उड़ा दी। वो जानते थे कि देशबन्धु और बोस के साथ को तोड़े बिना स्वराज पार्टी को कमजोर करना नामुमकिन है अतः वो एक ऐसे ही मौके की तलाश में जुट गये। 25 अक्टूबर 1924 की सुबह ही उन्हें सूचना दी गयी कि कलकत्ता पुलिस कमीशनर ने उन्हें बुलाया है। कमीशनर ने उनके आने पर उनसे कहा कि 1818 के कानून की धारा 3 के तहत उनकी गिरफ्तारी का वारंट है। बोस के साथ ही दो अन्य स्वराज्यवादी सदस्यों को भी गिरफ्तार किया गया।
1924 मे बोस की गिरफ्तारी के साथ ही और भी बहुत गिरफ्तारियाँ की गयी। जिसके लिये सरकार ने ये सफाई दी की एक क्रान्तिकारी षड़यन्त्र की योजना बनायी जा रही है जिसके तहत ये गिरफ्तारियाँ की जा रही है। दो अंग्रेजी अखबारों ने तो इस घोषणा से भी बढ़कर आरोप लगाया कि क्रान्तिकारी षड़यन्त्र के पीछे बोस का दिमाग है। सुभाष ने इन अखबारों पर मानहानि का केस कर दिया। सरकार और उसके नियंत्रण में चलने वाली ये प्रेस अपने आरोपों के पक्ष में कोई भी तथ्य पेश नहीं कर पायी, फिर भी इन पर बिना मुकदमा चलाये बोस के साथ-ही बंगाल के कई बड़े नेता को कैद में डाल दिया।
सुभाष चन्द्र बोस को कुछ सप्ताह के लिये अपने शासकीय कार्यों को पूरा करने का समय देने के साथ ही उनके साथ दो पुलिस अधिकारियों को नियुक्त कर दिया गया। अंग्रजों ने इनके कार्यों के पूरा होते ही इन्हें निर्वासित जीवन व्यतीत करने के लिये मांडले जेल (रंगून) भेज दिया। कारागार की परिस्थितियाँ तथा जलवायु के कारण इनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा जिससे इन्हें निमोनिया हो गया। वहां के मेडिकल बोर्ड ने जाँच के बाद सलाह दी कि इन्हें जेल में रखना ठीक नहीं होगा, जिसके बाद इन्हें इनशीन जेल में भेज दिया। उस जेल के अधिक्षक ने सरकार को इनके स्वास्थ्य के संबंध में सूचना दी लेकिन सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की साथ ही ये संदेश दिया कि यदि सुभाष भारत आये बिना रंगून से ही अपने इलाज के लिये यूरोप चले जाये तो वो उन्हें रिहा कर सकती है।
सुभाष ने ये शर्त ये कहते हुये मानने से इंकार कर दिया कि वो अपने जीवन से भी ज्यादा अपने सम्मान से प्यार करते है और वो किसी ऐसे अधिकारों के साथ कोई सौदा नहीं कर सकते जो आने वाले समय की कूटनीति का आधार बनने वाले हैं। जिस पर सरकार ने उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखने का आदेश दिया। मई 1927 को डायमंड हार्बर पर उनकी मेडिकल जाँच करायी गयी जिसमें इनके अस्वस्थ्य होने की पुष्टि की गयी। इसके बाद इन्हें अगली सुबह रिहा कर दिया गया।
बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष के रुप में कार्य (1927-1930)
अपनी अस्वस्थ्यता के चलते सुभाष ने किसी भी राजनैतिक कार्यवाही में भाग न लेकर अपने परिवार के साथ समय व्यतीत किया। जिस समय ये शारीरिक अस्वस्थ्यता के कारण मांडले जेल से रिहा किये गये थे उस समय बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। स्वस्थ्य होने के साथ ही ये अपने कार्यों में लग गये। उस समय भारतीय राजनीति उतार-चढ़ाव के रास्ते पर थी क्योंकि 1928 में ही साइमन की अध्यक्षता में एक सम्पूर्ण आंग्ल आयोग की नियुक्त की गयी थी, जिसका उद्देश्य था किसी भी प्रकार के समझौते को करके भारत में अंग्रेजी शासन को बनाये रखना। लेकिन कांग्रेस इसका बहिष्कार करने के लिये पहले से ही तैयार थी।
कांग्रेस ने भी अपने कार्यों को नयी दिशा देने के लिये अपनी कार्यकारी समिति में सुभाष चन्द्र बोस, जवाहर लाल नेहरु तथा शोएब को महासचिव के रुप में नियुक्त किया। इसी कार्यकारी समिति के आह्वान पर साइमन कमीशन के भारत आगमन पर पूरे देश में हड़तालों का आयोजन किया गया। जिसमें बंगाल प्रान्त में हड़तालों का नेतृत्व सुभाष चन्द्र बोस ने किया।
ये वह समय था जब देश को अपने सभी नेताओं के सामूहिक नेतृत्व की आवश्यकता थी लेकिन महात्मा गाँधी इस समय सक्रिय राजनीति से अवकाश पर थे, इसलिये बोस महात्मा गाँधी से मिलने के लिये गये। उन्होंने महात्मा गाँधी से आन्दोलन के नेतृत्व को दिशा देने के लिये कहा परन्तु उन्होंने मना कर दिया।
सुभाष चन्द्र ने देशवासियों को आन्दोलन की सही दिशा में नेतृत्व के लिये जागरुक व एकजुट करने के लिये देशव्यापी दौरे करने शुरु कर दिये। अपने दौरे के क्रम में वो जब पूणे पहुँचे तो वहाँ उन्होंने अपना एतिहासिक भाषण देते हुये कहा कि– “कांग्रेस को श्रमिक संगठन में सीधे उतर जाना चाहिये। अपने-अपने सामुदायिक एंव राष्ट्रीय लक्ष्यों को सामने रखकर महिलाओं, युवाओं और विद्यार्थियों को भी अपने-अपने स्वाधीन संगठन बनाने चाहिये।”
नवम्बर 1928 को स्वाधीन भारतीय संघ स्वतंत्र भारतीय लीग (इंडिपेंडेंस ऑफ इण्डिया लीग) का उद्घाटन हुआ। इसका संयुक्त नेतृत्व सुभाष चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरु ने संभाला। 1928 को जमशेदपुर टाटा कम्पनी के श्रमिक हड़ताल पर चले गये। इन श्रमिकों की हड़ताल का नेतृत्व बोस ने किया और इसे एक विशाल पैमाने तक बढ़ाया।
कांग्रेस की कार्यकारी समिति ने 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस मनाने की घोषणा करने के साथ ही पूर्ण स्वराज्य की माँग भी रखी। 1930 को पहली बार भारतवासियों ने 26 जनवरी का दिन पूरे उत्साह के साथ मनाया। इसके साथ ही सुभाष चन्द्र बोस ने अपने सैन्य कार्यक्रमों को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया। इन सभी योजनाओं को कार्यान्वित करने से पहले ही इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और एक साल की कड़ी सजा सुनायी।
कलकत्ता के महापौर के रुप में कार्य
बोस के नेतृत्वकारी गुणों, उनके विचारों और उनके द्वारा किये गये कार्यों से अंग्रेज सरकार के मन मे भय बैठ गया। जब वो लाहौर से कलकत्ता आ रहे थे उसी समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और एक साल के कठोर कारावास की सजा सुनायी और इन्हें कलकत्ता जेल में रखा गया। इस समय गाँधी जी का नमक सत्याग्रह आंदोलन बड़े जोरों से चल रहा था। बोस को जगह-जगह से आन्दोलन के सफल होने की सूचना मिली। वो अपने साथी बन्दियों के साथ इस सफलता की खुशियाँ मनाते। इस बात से जेल अधिकारी इनसे चिढ़ गये और इनकी उससे झड़प हो गयी। जेल अधिक्षक ने इनके साथियों के साथ ही इन्हें भी बहुत बुरी तरह से पीटा लेकिन इनके उत्साह को कम नहीं कर पाया।
कलकत्ता जेल में रहते हुये ही सुभाष चन्द्र बोस को कलकत्ता नगर निगम का महापौर चुना गया। महापौर चुने जान के बाद भी इन्हें लगभग 1 साल बाद जेल से आजाद किया गया। इनके जेल से आजाद होने के बाद सभा का आयोजन किया गया जिसमें देशमुख सी.आर.दास द्वारा किये गये कार्यों को याद करके बहुत भावुकता पूर्ण भाषण दिया। 1924-1930 तक का समय कलकत्ता के विकास का चर्मोत्कर्ष था। 1924-30 के बीच के समय में प्रत्येक राष्ट्रीय उत्सव को भव्य समारोह के रुप में मनाया जाता था। इस कार्यक्रम में उन्होंने अपनी भावी योजनाओं की घोषणा की।
26 जनवरी 1931 को दूसरे स्वाधीनता दिवस के अवसर पर रैली को आयोजित किया गया। जिसमें कलकत्ता नगर निगम के वरिष्ठ अधिकारियों ने भी भाग लिया। सुभाष चन्द्र बोस रैली की अगुवायी करते हुये नगर निगम मुख्यालय से मैदान की ओर चले कुछ दूर जाने पर घुड़सवार पुलिस कर्मियों की शक्तिशाली टुकड़ी ने उन पर हमला कर दिया और बड़ी क्रूरता से लाठी चार्ज करने लगे। उन्होंने बोस को बहुत बुरी तरह से पीटा और गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी के बाद सुभाष चन्द्र बोस को मार्च 1931 में रिहा किया गया। जेल से बाहर आने के बाद बोस गाँधी से मिलने गये और भावी आन्दोलन की रुप- रेखा तैयार की।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन की पुनः शुरुआत
1931 में गाँधी-इरविन समझौते में जो शर्तें सरकार द्वारा मानी गयी थी उनका सरकार ने खुद उल्लंघन करना शुरु कर दिया। अतः महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरु और सुभाष चन्द्र बोस ने परस्पर सहमति से पुनः सविनय अवज्ञा आन्दोलन को प्रारम्भ करने का निर्णय लिया। लेकिन इस बार सरकार पहले से ही इस आन्दोलन को विफल करने के लिये तैयार थी, अतः जनवरी 1932 की शुरुआत से से ही सरकार ने काँग्रेस और अन्य राष्ट्रवादी स्वंय सेवक संघों के सदस्यों को गिरफ्तार करना शुरु कर दिया साथ ही इन राजनैतिक बंदियों को अलग-अलग गुप्त जेलों में रखा गया।
सुभाष चन्द्र बोस को भी गिरफ्तार करके सिवानी की एक छोटी जेल में रखा गया। कुछ दिन बाद इनके बड़े भाई शरत् चन्द्र को भी गिरफ्तार करके इसी जेल में रखा गया। इस दौरान देश की राजनीति में भारी उथल-पुथल चल रही थी। सुभाष चन्द्र बोस 1930 की ही तरह 1932 में जेल की सलाखों के पीछे से मूक दर्शक बने इन घटनाओं को देख रहे थे।
ब्रिटिश सरकार ने भारतीय एकता को छिन्न-भिन्न करने के लिये अगस्त 1932 में कम्युनल अवार्ड के आयोजन की घोषणा की जिसके अन्तर्गत दलित वर्गों और अन्य राष्ट्रीय स्तर के अल्पसंख्यकों के लिये आरक्षण और पृथक निर्वाचन करने की चाल चली। ब्रिटिश सरकार की ये चाल सफल रही और उन्होंने कांग्रेस के सविनय अवज्ञा के आन्दोलन के रुख को अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन की तरफ मोड़ दिया। जेल में कैद बोस इस बेबसी के साथ उदास रहने लगे।
खराब स्वास्थ्य के कारण यूरोप प्रवास
सिवानी की जेल में रहते हुये सुभाष चन्द्र बोस और इनके भाई शरत् चन्द्र का स्वास्थ्य में तेजी से गिरावट होनी शुरु हो गयी। जिसके कारण दोनों भाईयों को जबलपुर जेल में भेज दिया गया। लेकिन यहाँ भी बोस के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ तो इन्हें पहले मद्रास, भुवाली और अंन्त में लखनऊ भेजा गया। लेकिन न तो इनके स्वास्थ्य में ही कोई सुधार हुआ और न ही इनकी बीमारी का ही पता चला।
बोस की भाभी विभावती (शरत् चन्द्र की पत्नी) ने इनके स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक अर्जियाँ दिल्ली सरकार को भेजी लेकिन सरकार की ओर से इनके पक्ष में कोई भी फैसला नहीं लिया गया। सरकारी अफसरों का रुख इनकी ओर वैमनस्य पूर्ण (शत्रुता से भरा हुआ) रहा। बहुत ज्यादा स्वास्थ्य गिरने पर बोस को यूरोप भेज कर इलाज कराने की अनुमति दे दी गयी। लेकिन साथ ही सरकार, सरकारी खर्च पर इनका इलाज कराने से मुकर गयी।
13 फरवरी 1933 को सुभाष चन्द्र बोस को इतावली जलपोत गैजी से यूरोप भेज दिया गया। मार्च 1933 में ये वियना पहुँचे जहाँ इनकी भेंट एक योग्य चिकित्सक से हुई। उसके इलाज से थोड़े से समय में ही स्वस्थ्य होने लगे। बोस थोड़े से स्वस्थ्य होते ही भारतीय स्वाधीनता के मिशन को आगे बढ़ाने के लिये यूरोपीय राजनीति में भाग लेने लगे।
यूरोप में भारतीय राष्ट्रीयता के गैर सरकारी दूत के रुप में
भारत सरकार ने इन्हें यूरोप भेजते समय केवल आस्ट्रिया और ईटली का ही वीजा दिया ताकि ये ब्रिटेन सहित अन्य देशों में यात्रा न कर सके। सरकार इन्हें किसी भी हाल में इंग्लैण्ड और जर्मनी से दूर रखना चाहती थी, क्योंकि इन देशों में बहुत अधिक संख्या में भारतीय विद्यार्थी उच्च स्तर पर तकनीकी शिक्षा ले रहे थे और सरकार को डर था कि कहीं बोस इन देशों के छात्र समुदाय को अपनी परिवर्तनवादी सैन्य विचारधारा से प्रभावित करके अपनी ओर न कर ले। अतः सरकार ने केवल दो देशों का वीजा देकर इनके कार्यक्षेत्र को छोटा कर दिया।
यूरोप में रहने के दौरान सुभाष चन्द्र बोस ने भारतीय राष्ट्रीयता के गैर सरकारी दूत के रुप में कार्य किया। इस कार्य का प्रारम्भ इन्होंने आस्ट्रिया में किया क्योंकि ये अन्य देशों में नहीं जा सकते थे। लेकिन इनके इस कार्य का क्षेत्र पौलैण्ड, स्वीट्जरलैण्ड, इटली, फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैण्ड आदि देशों तक फैल गया। राजनीति के क्षेत्र के साथ ही बोस बौद्धिक दल के लोगों के साथ भी सम्पर्क में थे। वो ऐसे व्यक्तियों के साथ पत्र व्यवहार करते थे जो साहित्य, इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक क्षेत्र से संबंधित थे।
विएना में रहते हुये बोस ने ‘आस्ट्रिया-भारत संघ’ की स्थापना की। प्राग जाकर इन्होंने चेकोस्लाविया के विदेश मंत्री, एडुअर्ड बेंस से मुलाकात की और महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों पर विचार-विमर्श किया। इन्होंने “चेकोस्लाविया-भारत समिति (1934)” के गठन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई साथ ही इसके उद्घाटन पर भाषण भी दिया।
1934 के अंत में इन्हें अपने पिता की मृत्यु की सूचना मिली। बोस अपने पिता के अन्तिम दर्शन के लिये भारत आये लेकिन ड़ेढ़ दिन की देरी होने के कारण ये पिता को आखिरी बार भी देख नहीं पाये। ब्रिटिश सरकार ने इन्हें कलकत्ता पहुँचते ही एलगिन रोड वाले घर में नजर बंद कर दिया गया। बोस इस कैद में लगभग 1 महीने तक रहे और जनवरी 1935 में दोबारा यूरोप लौट गये।
एमिली शेंकल से विवाह
आस्ट्रिया में इलाज के लिये रुकने के दौरान इन्होंने कई पत्र और पुस्तकें लिखी थी, जिन्हें इंग्लिश में टाइप करने के लिये एक टाइपिस्ट की आवश्यकता महसूस हुई। इन्होंने इस संबंध में अपने एक मित्र से बात की जिस पर इनके मित्र ने इनका परिचय एमिली शेंकल से कराया। इन्हें स्वभाविक आकर्षण के कारण एमिली से प्रेम हो गया और 1942 में बोस ने शेंकल से विवाह कर लिया। इनका विवाह बाड गास्टिन स्थान पर हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ। इस विवाह से इनके एक पुत्री भी हुई जिसका नाम अनीता बोस रखा गया।
कांग्रेस के अध्यक्ष के रुप में (1938-1939)
सुभाष चन्द्र एक लम्बी बीमारी और यूरोप में उपचार के बाद वर्ष 1938 के अन्त में भारत लौट कर आये। कलकत्ता में इनका भव्य स्वागत हुआ। इनके भारत लौटने के साथ ही इन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की अटकलें लगायी जाने लगी। कांग्रेस समिति में सी.आर.दास के बाद कोई भी बंगाल प्रान्त से अध्यक्ष नहीं चुना गया था। कांग्रेस के 51वें अधिवोशन में सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस समिति का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया।
सुभाष चन्द्र बोस अध्यक्ष निर्वाचित होते ही कांग्रेस की जड़ों को मजबूत करने में लग गये। अपने कार्यक्षेत्रों को बढ़ाने के साथ ही इन्होंने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि ब्रिटिश सरकार द्वारा कांग्रेस के सदस्यों को किसी भी परिस्थिति में न तो कमजोर किया जा सके और न ही झुकाया जा सके। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर बोस ने देश का व्यापक दौरा किया। ये भारतीय जनता को बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय संघर्ष के लिये तैयार कर रहे थे। पार्टी अध्यक्ष के रुप में ये सभी बैठकों में निष्पक्षता और कर्तव्य निष्ठा के साथ निर्णय लेते थे।
इनके राष्ट्रवादी विचारों के कारण गाँधी के विरोध के बाद भी इन्हें कांग्रेस का लगातार दूसरी बार अध्यक्ष चुना गया। इनके विपक्ष में गाँधी ने पट्टाभिसीता रमैया को खड़ा किया था जिनको बोस ने 200 वोटों के भारी अन्तर से हराया। चुनाव हाने तक तो गाँधी चुप थे लेकिन चुनाव के परिणाम घोषित होने पर महात्मा गाँधी ने घोषणा की कि सीता रमैया की हार उनकी हार है और वो इन चुनावी परिणामों से संतुष्ट नहीं है। अतः जब तक दोबारा चुनाव नहीं कराये जाते तब तक वो आमरण अनशन पर रहेंगे। बोस ने गाँधी को मनाने की बहुत कोशिश की लेकिन सभी प्रयास बेकार साबित हुए। अंत में परिस्थितियों से मजबूर होकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के बाद अध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा दे दिया। इस इस्तीफे ने उनके जीवन के एक महत्वपूर्ण अध्याय के अंत के साथ ही स्वाधीनता संग्राम में एक नये प्रयोग के शुभारम्भ की कहानी लिखी।
फारवर्ड ब्लाक की स्थापना (3 मई 1939)
29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद बोस ने 3 मई 1939 को अपनी अलग पार्टी की स्थापना की। ये पार्टी लोगों को स्वाधीनता संग्राम के प्रति जागरुक करने के लिये एक नया साधन बनकर सामने आयी। इस पार्टी के नाम से बोस एक साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादन भी करते थे। इस पत्रिका के लेखों में देश भर में हो रही सप्ताह भर की गतिविधियों का संक्षिप्त व आलोचना पूर्ण विवरण होता था। इस प्रकार वो लोगों में जन-चेतना का संचार करने लगे।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन द्वारा जर्मनी के लिये अपनायी गयी तुष्टि पूर्ण नीतियों के कारण जर्मनी के शासक हिटलर ने मित्र राष्ट्रों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। सुभाष चन्द्र बोस भी इस मौके का लाभ लेकर भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता दिलाना चाहते थे क्योंकि ब्रिटेन इस समय बहुत कमजोर स्थिति में था। इन्होंने अपनी पार्टी के दूसरे सम्मेलन में देश की जनता के लिये “ऑल पावर टू इंडियन पीपूल” का नारा दिया। बोस चाहते थे कि भारत भी इंग्लैण्ड के खिलाफ युद्ध में भाग लेकर अपनी स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करे। इसके लिये वो गाँधी के पास भी गये। लेकिन गाँधी ने ऐसा कोई भी कदम लेने से इंकार कर दिया।
दूसरी तरफ इनकी योजनाओं और विचारों से सरकार परेशान थी। वो बोस को कैद करने के मौकों को तलाशने लगी। इस दौरान इन्होंने स्वंय सेवकों के एक दल का नेतृत्व करते हुये हालवोट स्तम्भ के चारों ओर सत्याग्रह आन्दोलन किया। ब्रिटिश सरकार को तो जैसे बोस को फिर से कैद करने का बहाना मिल गया हो, उन्होंने बिना किसी देरी के सुभाष को डिफेंस ऑफ इंडिया रुल्स के तहत गिरफ्तार कर लिया गया और कलकत्ता की प्रेजीडेंसी जेल में डाल दिया साथ ही राजद्रोह के दो अन्य मुकदमें भी लगा दिये।
सुभाष को पूरा विश्वास था कि युद्ध ब्रिटिश शासन को जड़ से उखाड़ सकता है। लेकिन इस बार वो पहले की तरह जेल की सलाखों के पीछे निष्क्रिय पड़े रहकर ये सब नहीं देखना चाहते थे अतः इन्होंने सरकार को चुनौती दी कि उन्हें जेल में रखने के पीछे सरकार के पास कोई वैधानिक कारण नहीं है। यदि उन्हें मुक्त नहीं किया गया तो वो आमरण अनशन कर देंगें। इस बात को सरकार ने गम्भीरता से नहीं लिया। जेल में एक हफ्ते के अनशन के दौरान इनका स्वास्थ्य फिर से खराब होने लगा। बंगाल सरकार ने भयभीत होकर उच्च अधिकारियों की एक गुप्त बैठक बुलायी जिसने ये निर्णय लिया गया कि जब तक ये स्वस्थ्य नहीं हो जाते तब तक के लिये छोड़ दिया जाये और स्वास्थ्य होते ही पुनः जेल में डाल दिया जाये। इस निर्णय के साथ ही इन्हें आजाद कर दिया गया।
देश से पलायन
सरकार ने कथित तौर पर सुभाष चन्द्र को आजाद तो कर दिया लेकिन वो किसी भी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहती थी। अतः बोस को इनके ही घर में नजरबंद कर दिया गया। जेल से बाहर आने के साथ ही बोस देश से बाहर निकलने के उपायों में जुट गये। पुलिस की नजर बंदी से निकलकर देश की सीमा पार करना बहुत ही जोखिम भरा काम था। इसके लिये इन्होंने अपने भतीजे शिशिर बोस के साथ एक गुप्त योजना बनायी। जिसके तहत इन्होंने अपने परिवार जनों को कहा कि वो कुछ समय के लिये एकांतवास में रहना चाहते हैं। जिस दौरान ना वो किसी से मिलेंगें, न बात करेंगें और न ही किसी को कोई पत्र लिखेंगे।
इस प्रकार योजना बनाकर घर वालों को अपने एंकातवास की सूचना देकर एक दिन पहले ही परिवार वालों से विदा ले लिया। ये सब कार्य बहुत ही गुप्त रुप से किया गया। 17 जनवरी 1941 को रात के करीब 1:30 बजे वो अपने भतीजे शिशिर के साथ धनबाद पहुँचे। वहाँ से अपने बड़े भतीजे अशोक (शरत् चन्द्र के बड़े बेटे) के साथ से दिल्ली कालका मेल की गोमोह स्टेशन से टिकट लेकर आगे का रास्ता अकेले तय किया। इसके बाद वो 19 जनवरी 1941 को दिल्ली से पेशावर के लिये रवाना हो गये।
वो पेशावर एक मुस्लिम भेष व मुस्लिम नाम, मोहम्मद जियाउद्दीन के नाम से गये। यहाँ योजनानुसार इनकी मुलाकात अकबर शाह से हुई। यहाँ करीब 6 दिन तक रहने के बाद यहाँ से काबुल (अफगानिस्तान) की यात्रा भगतराम तलवार के साथ की। अफगानिस्तान जाते समय बोस ने एक पठान का रुप ले लिया था। अब वो भगतराम के गूँगे बहरे चाचा थे, जिन्हें इलाज के लिये पहले दरगाह ले जाना था और बाद में काबुल। 31 जनवरी 1941 को दुर्गम रास्तों को पार करते हुये काबुल पहुँच गये।
अफगानिस्तान में प्रवासी का जीवन
काबुल पहुँचने के बाद वो दोनों लाहौरी गेट के पास सराय में रुके। वहाँ इन्हें लगातार ब्रिटिश गुप्तचरों की नजर में आने का भय बना रहता था। इस बीच वो रुस के दूतावास में प्रवेश करने की योजना बनाने लगे, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। सरायों में रहना खतरे से खाली नहीं था अतः वो भारतीय व्यापारी उत्तम चन्द के घर मेहमान के रुप में रहें।
6 फरवरी को जर्मन दूतावास लीगेशन के मिनिस्टर पिल्गर से मिले जिसने इनकी कोई भी मदद करने में असमर्थता व्यक्त की। लेकिन जर्मन कम्पनी सीमंस के साथ परिचय कराया। 23 फरवरी को इन्हें सीमंस के ऑफिस से इटली दूतावास के मिनिस्टर अलबर्टों करोनी से संपर्क करने का संदेश मिला। करोनी से सम्पर्क करके इन्होंने अपनी रणनीति को व्यक्त किया। जिससे 17 मार्च को एक इटली राजनयिक के रुप में प्रस्थान किया।
फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना
जर्मनी पहुँचने के बाद सुभाष ने निर्वासित भारतीयों, छात्रों जर्मन राजनयिकों से सम्पर्क स्थापित करना शुरु कर दिया। लोगों से मैत्रीपूर्ण सम्पर्क जोड़ने और अपने विचारों के अनुयायी वर्ग में वृद्धि करने के लिये इनहेंने विभिन्न देशों का भ्रमण भी किया। जिनमें मुख्य रुप से इटली, आस्ट्रिया तथा फ्रांस शामिल था।
बोस ने अपने विचारों से जर्मन के राजनयिक वर्ग को बहुत प्रभावित किया। अपने इन प्रयासों के कारण वो सूचना विभाग में “वर्किंग ग्रुप इंडिया” को गठित करने में सफल हुये जो बाद में “स्पेशल इंडिया डिपार्टमेंट” बना और इसका नियंत्रण सीधे वान ट्राट और वर्ट को दिया गया। जर्मन के विदेश कार्यालय और जर्मन सैनिक कमान में इनकी लोगों से मित्रता बढ़ती चली गयी।
बोस ने अपने इन्ही सम्पर्कों की सहायता से 1941 में बर्लिन में “फ्री इंडिया सेंटर” की स्थापना की। इस सेंटर की स्थापना में इनके कुछ विश्वासपात्र सहयोगियों ने इनका साथ दिया जिनमें मुख्य रुप से एन.जी.गणपुले, ए.सी. एन.नांबियार, आबिद हसन, एम.आर.व्यास, गिरिजा मुखर्जी और एन.जी.स्वामी थे। इस सेंटर को एक विदेशी दूतावास के रुप में स्थापित किया गया साथ ही इसके सभी सदस्यों को विदेशी राजनयिकों को दी जाने वाली सभी सुविधाएँ प्राप्त करने का हक था। यहाँ से निम्नलिखित गतिविधियाँ क्रियान्वित की जाती थी–
- जर्मनी में रहने वाले भारतीयों का संगठन और उनके ठीक रहने की व्यवस्था।
- यूरोप में स्थापित सभी फ्री इंडिया सेंटर से सम्पर्क।
- नेशनल कांग्रेस रेडियो, आजाद हिंद रेडियो और आजाद मुस्लिम रेडियो का प्रसारण।
- फ्री इंडिया सेंटरों और दक्षिण-पूर्व एशिया की इंडियन इंडिपेंडेंस लीग में तालमेल स्थापित करने के लिये समन्वय केंद्र की स्थापना।
- इंडियन नेशनल आर्मी, आजाद हिन्द फौज या इंडियन लीजन (जिसमें वो भारतीय युद्धबंदी भर्ती किये गये थे जो उत्तरी अफ्रीका से आये थे।) से समन्वय के साथ ही निकट संपर्क स्थापित करके फौजी हितों की रक्षा करना।
- ‘आजाद हिन्द’ पत्रिका का दो भाषाओं (जर्मन व अंग्रेजी) में प्रकाशन (इस पत्रिका में भारतीय राजनीति, संस्कृति, अर्थव्यवस्था, कला आदि अनेक विषयों पर जो भी रिपोर्ट या खबरें उपल्ब्ध हो पाती उनका प्रकाशन किया जाता था तथा अनेक विषयों पर लेख लिखकर भी प्रकाशित किये जाते थे साथ ही इसका वितरण पूरे यूरोप में किया जाता था)।
फ्री इंडिया सेंटर के ही कारण आजाद हिन्द फौज का गठन और संचालन संभव हो पाया था। इस सेंटर ने रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित कविता “जन-गन-मन” को राष्ट्रीय गान घोषित करने के साथ ही ‘जय हिंद’ का नारा भी दिया। इसके झंड़े को कांग्रेस से जोड़ते हुये इसके बिल्कुल बीच में छलांग लगाते हुये शेर की तस्वीर लगाई गयी जो पूरी तरह से शक्ति और साहस का प्रतीक थी।
हिटलर से मुलाकात
जर्मनी में पहुँचने के साथ ही सुभाष चन्द्र बोस ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित पृष्ठभूमि तैयार की। इस दौरान इनके बहुत से व्यक्ति जैसे विदेशी राजनियकों, विचारकों, पत्रकारों, जर्मन सेना के सैनिकों आदि से काफी करीबी और घनिष्ट संबंध बने। इन सबंधों ने समय आने पर बोस की बहुत मदद भी की। इस बीच इनकी मुलाकात जर्मन सरकार के एक विशिष्ट मंत्री एडम फॉर्न ट्रॉट से हुई जिनसे बोस की बहुत अच्छी मित्रता भी हो गयी।
29 मई 1942 को बोस की मुलाकात जर्मनी के तानाशाह (डिक्टेटर) हिटलर से हुई। इन्होंने भारतीय मुद्दों को लेकर उस से बात की लेकिन उसने भारतीयों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखायी और न ही भारतीय मुद्दों में कोई दिलचस्पी ही प्रदर्शित की। जिस कारण बोस को उससे मदद का कोई स्पष्ट संकेत और सन्तुष्टि नहीं मिली। लेकिन हिटलर ने उन्हें जर्मनी से बाहर निकलने में मदद करने के साथ ही पूर्वी क्षेत्र में जाने तक की यात्रा सुविधा उपलब्ध कराने के लिये सहमति दी।
जर्मनी से प्रस्थान
26 जनवरी 1943 को बर्लिन में भारतीय स्वाधीनता दिवस बहुत शानदार और भव्य आयोजन के साथ मनाने के दो दिन बाद फ्री इंडिया सेंटर के साथ मुलाकात की जिसके बाद वो यूरोप से प्रस्थान कर गये।
सुभाष चन्द्र बोस ने उत्तर-जर्मन बन्दरगाह से आबिद हसन के साथ पनडुब्बी में यात्रा की। ये यात्रा तीन महीने की थी। इस यात्रा के दौरान बोस ने अपने योजना बनाने संबंधी कार्यों को जारी रखा। इसी यात्रा के दौरान बोस ने झाँसी की रानी रेजीमेंट का बुनियादी ढाँचा तैयार किया। 24 अप्रैल 1943 को दूसरी पनडुब्बी में यात्रियों की अदला-बदली हुई। ये अदला-बदली बहुत ही ऐतिहासिक थी क्योंकि द्वितिय विश्व युद्ध के दौरान दो जर्मन पनडुब्बियों के मध्य ये सबसे पहली और आखिरी थी।
इस दूसरी पनडुब्बी ने इन्हें साबांग द्वीप समूह पर उतार दिया। यहाँ इनके चिकित्सिय परीक्षण के बाद क्वैरंटाइन (संगरोधक) के इंजेक्शन देकर कुछ समय के लिये आराम कराया गया। 13 मई 1943 को इन्होंने हवाई जहाज द्वारा टोकियों के लिये यात्रा की।
जापान की सरकार से भारत की मदद के लिये शिखर वार्ता
तीन महीने की लंबी यात्रा के दौरान सुभाष चन्द्र बोस ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये पूरी योजना का निर्माण किया और टोकियों पहुँचने के बाद इसे वास्तविक रुप देने के प्रयासों में लग गये। जापान पहुँचने के बाद बोस ने पूरे एक महीने तक जापान के प्रधानमंत्री से शिखऱ वार्ता करने की तैयारी की। इस बीच इन्होंने जापानी सेना के प्रमुख अधिकारियों, राजनयिकों, बौद्धिक वर्ग से भी सम्पर्क स्थापित किया।
वर्ष 1943 में जून के मध्य में बोस ने जापान के प्रधानमंत्री तोजो से पहली मुलाकात की। इस मुलाकात के अच्छे और सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुये। मि. ताजो बोस के व्यक्तित्व से बहुत अधिक प्रभावित हुये। उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस द्वारा रखी गयी ज्यादातर शर्तों को मान लिया।
दूसरी मुलाकात के लिये मि. तोजो ने नेताजी को दाईत (उस समय जापान की संसद को कहा जाता था) में आमंत्रित किया तथा बोस की उपस्थिति में भारतीय लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये बिना शर्त पूरा समर्थन की घोषणा की। ये पहली साहसिक घोषणा थी जिसे कोई अन्य जैसे महात्मा गाँधी या हिटलर नहीं कर पाये।
आजाद हिन्द फौज का गठन
4 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने रासबिहारी बोस से पूर्व एशिया में चलाये जा रहे भारतीय आन्दोलन का नेतृत्व ग्रहण किया। ये नेतृत्व उन्होंने कैथे सिनेमा हॉल में लिया था। आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व ग्रहण करते हुये बोस ने कहा –
“अपनी फौजों का कुशलता पूर्वक संचालन करने के लिये मैं स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार बनाने का विचार रखता हूँ। इस अस्थाई सरकार का कर्तव्य होगा कि वह भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में सफलता प्राप्ति तक लड़ती रहे।”
5 अप्रैल 1943 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर के टाउन हाल में सेना की सलामी के बाद औजस्वी भाषण दिया। इसी भाषण के दैरान इन्होंने “दिल्ली चलो”, “जय हिन्द” का भी नारा दिया। 8 अप्रैल को आयोजित सामूहिक रैली के दौरान नेताजी ने कहा था कि– “मुझे 3 लाख सैनिक और 3 करोड़ डॉलर चाहिये। मुझे एक मृत्यु से न डरने वाली भारतीय महिलाओं का दल चाहिये जो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन की वीरांगना झांसी की रानी की तरह युद्ध में तलवार चला सके।”
आजाद हिन्द के बोस से पहले केवल चार विभाग थे, उन चार विभागों को बल प्रदान करने के लिये सात नये विभागों का गठन किया गया। आई.एन.ए. का मुख्य आधार “एकता, त्याग एंव निष्ठा” रखा गया। इस भावना ने संगठन में नये आदर्शों की भावना का विकास किया। महिलाओं के लिये झाँसी की रानी रेजीमेंट का गठन किया गया जिसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी सहगल (डॉ. लक्ष्मी स्वामीनाथन) को सौंपी गयी।
सिंगापुर में अपनी सेना को सुदृढ़ करने के बाद नेताजी ने वर्मा (म्यांमार) के लिये कूच किया और जनवरी 1944 को वर्मा में आई.एन.ए. का दूसरा मुख्यालय स्थापित किया। 1944 में रंगून रेडियो स्टेशन से नेताजी ने गाँधी को सम्बोधित करकते हुये अपन भाषण दिया। इस भाषण के दौरान नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने पहली बार गाँधी को “राष्ट्रपिता” कहकर संबोधित किया। अपनी जीत के लिये शुभकामनाएँ और आशीर्वाद देने के लिये कहा। नेताजी का गाँधी के लिये भावपूर्ण संदेश इस प्रकार था-
“भारत की स्वतंत्रता का अन्तिम युद्ध शुरु हो चुका है। आजाद हिन्द फौज भारत भूमि पर वीरता से युद्ध कर रही है और अनेक कठिनाईयों के होते हुये भी धीरे-धीरे दृढ़ता से आगे बढ़ रही है। ये सशस्त्र युद्ध उस समय तक चलता रहेगा जब तक कि हम अंतिम अंग्रेज को भारत से बाहर न निकाल देंगें और हमारा तिरंगा नयी दिल्ली में वॉयसराय भवन पर न फहराने लगे।”
“राष्ट्रपिता ! हम भारत के इस पवित्र मुक्ति युद्ध में आपका आशार्वाद और शुभकामनाएँ चाहते हैं, जय हिन्द।”
अपनी फौज के साथ नेताजी ने वर्मा के बहुत से क्षेत्रों को अंग्रेजी सेना से युद्ध करके छीन लिया। लेकिन ये सफलता ज्यादा दिन तक नहीं रहीं । औजाद हिन्द फौज विजय पताका लहराती हुई आगे बढ़ रही थी इसी समय उसके सैनिकों को बहुत सी परेशानियों से जूझना पड़ा और उन्हें रंगून से वापस बैंकॉक लौटना पड़ा।
आजाद हिन्द फौज का ये संघर्ष उस समय खत्म हुआ जब युद्ध में जापान के खिलाफ रुस व अमेरिका भी इंग्लैण्ड की ओर से शामिल हो गया। इन परिस्थितियों में नेताजी की फौज का भारत को स्वतंत्र कराने का संघर्ष धीमा हो गया। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका ने जापान के दो प्रमुख शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिये, जिससे जापान ने युद्ध में समर्पण कर दिया और अपनी हार मान ली। जापान की हार के बाद आजाद हिन्द फौज का विघटन कर दिया गया।
सुभाष चन्द्र बोस का लापता होना या नेताजी की रहस्यमयी मृत्यु
नेताजी ने आजाद हिन्द फौज के विघटन के बाद देशवासियों के नाम संदेश में कहा –
“भारतीय स्वाधीनता संग्राम का पहला अध्याय पूरा हुआ और इस अध्याय में पूर्व एशियाई बेटे-बेटियों का स्थान अमिट रहेगा। हमारी अस्थाई असफलता से निराश न हो। दुनिया की कोई ताकत भारत को गुलाम नहीं रख सकती।”
उस समय के उपलब्ध सुत्रों के अनुसार ये कहा जाता हे कि रंगून में पराजय के बाद बैंकॉक लौटते समय से ही नेताजी ने सोवियत रुस जाने का निर्णय कर लिया था। 15 अगस्त 1945 को नेताजी ने अपनी अस्थाई सरकार के साथ अन्तिम बैठक की गयी जिसमें फैसला किया गया कि आबिद हसन, देवनाथ दास, नेताजी हबीबुर्रहमान, एस.ए.अय्यर और कुछ अन्य साथियों के साथ बोस टोकियों से चले जाये। ये लोग विमान से बैंकॉक और सैगोन रुकते हुये रुस के लिये गये।
सैगोन में नेताजी को बड़े जापानी विमान में बिठा दिया गया। नेताजी ने इस विमान से हबीबुर्रहमान के साथ यात्रा की। 18 अगस्त को ये लड़ाकू विमान से ताइवान के लिये गये और इसके बाद इनका विमान रहस्यमयी तरीके से गायब हो गया। 23 अक्टूबर 1945 को टोकियों के रेडियो प्रसारण ने एक सूचना प्रसारित की कि ताइहोकू हवाई अड्डे पर विमान उड़ान भरते समय ही दुर्घटना ग्रस्त हो गया जिसमें चालक और इनके एक साथी की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गयी और नेताजी आग से बुरी तरह झुलस गये। इन्हें वहाँ के सैनिक अस्पताल में भर्ती कराया गया और इसी अस्पताल में इन्होंने अपने जीवन की आखिरी सांस ली।
नेताजी की मृत्यु पर विवाद
इस प्रकार नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की रहस्यमयी मृत्यु पर बहुत से विवाद खड़े हो गये। किसी को भी इस बात पर विश्वास नहीं हो पा रहा था कि जो व्यक्ति लोगों के हृदय में स्वतंत्रता की चिंगारी को जलाता रहा वो अब नहीं रहा। बंगाल प्रान्त के उनके समर्थकों ने उनकी विमान दुर्घटना में मृत्यु को सच नहीं माना। जिसके बाद 1947 को देश आजाद होने के बाद भारत की नयी निर्वाचित सरकार ने इनकी मृत्यु की जाँच के लिये तीन जाँच कमीशन नियुक्त किये। जिसमें से दो ने उनकी विमान दुर्घटना में मृत्यु को सही मान लिया जबकि एक कमीशन ने अपनी रिपार्ट में नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु की कहानी को कोरा झूठ बताया। भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को बिना कोई ठोस कारण दिये रद्द कर दिया और बाकि दो कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की विमान दुर्घटना में मृत्यु की पुष्टि कर उन रिपोर्टों को सार्वजनिक कर दिया।
सुभाष चन्द्र बोस द्वारा लिखी गयी पुस्तकें
- भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष।
- आजाद हिन्द।
- तरुनेर सपना।
- अल्टरनेटिव लीडरशिप।
- जरुरी कीचू लेखा।
- द एसेंशशियल राइटिंग्स ऑफ सुभाष चन्द्र बोस।
- 5th सुभाष चन्द्र बोस समग्र।
- संग्राम रंचनाबली।
- चलो दिल्ली: राइटिंग्स़ एंड स्पीच, 1943 -1945।
- आइडियाज़ ऑफ ए नेशन: सुभाष चन्द्र बोस।
- नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, द लास्ट फेस इन हिस ओन वर्ल्डस।
- इंडियाज़ स्पोक मैन अब्रॉड: लेटर्स, आर्टिकल्स, स्पीचस़ एंड सेटलमेंट।
- लाइफ एंड टाइम्स ऑफ सुभाष चन्द्र बोस, एज़ टोल्ड इन हिज़ ओन वर्ड्स।
- सेलेक्टेड स्पीचस़।
- सुभाष चन्द्र बोस एजेंडा फॉर आजाद हिन्द।
- स्वतंत्रता के बाद भारत: सुभाष चन्द्र बोस के चुनिंदा भाषण।
- तरुणाई के सपने।
- एट द क्रॉस रोड़स़ ऑफ चेंज़।
सुभाष चन्द्र बोस के कथन या नारे –
- “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा !”
- “राष्ट्रवाद, मानव जाति के उच्चतम आदर्श सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् से प्रेरित है।”
- “मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि हमारे देश की प्रमुख समस्याओं जैसे गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, कुशल उत्पादन एवं वितरण का समाधान सिर्फ समाजवादी तरीके से ही किया जा सकता है।”
- “ये हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी स्वतंत्रता का मोल अपने खून से चुकाएं। हमें अपने बलिदान और परिश्रम से जो आज़ादी मिलेगी, हमारे अन्दर उसकी रक्षा करने की ताकत होनी चाहिए।”
- “मध्या भावो गुडं दद्यात – अर्थात् जहाँ शहद का अभाव हो वहां गुड़ से ही शहद का कार्य निकालना चाहिए!”
- “भारत में राष्ट्रवाद ने एक ऐसी सृजनात्मक शक्ति का संचार किया है जो सदियों से लोगों के अन्दर से सुसुप्त पड़ी थी।”
- “आज हमारे अन्दर बस एक ही इच्छा होनी चाहिए, मरने की इच्छा ताकि भारत जी सके! एक शहीद की मौत मरने की इच्छा ताकि स्वतंत्रता का मार्ग शहीदों के खून से प्रशस्त हो सके।”
- “यदि आपको अस्थायी रूप से झुकना पड़े तब वीरों की भाँति झुकना !”
- “मुझे ये नहीं मालूम की स्वतंत्रता के इस युद्ध में हम में से कौन-कौन जीवित बचेंगा! परन्तु मैं ये जानता हूँ, अंत में विजय हमारी ही होगी!”
- “असफलताएँ कभी-कभी सफलता की स्तम्भ होती हैं !”
- “समझौतापरस्ती बहुत अपवित्र वस्तु है !”
- “कष्टों का निसंदेह एक आंतरिक नैतिक मूल्य होता है !”
- “मैंने जीवन में कभी भी खुशामद नहीं की है! दूसरों को अच्छी लगने वाली बातें करना मुझे नहीं आता!”
- “संघर्ष ने मुझे मनुष्य बनाया! मुझमें आत्मविश्वास उत्पन्न हुआ, जो पहले नहीं था!”
- “समय से पूर्व की परिपक्वता अच्छी नहीं होती, चाहे वह किसी वृक्ष की हो, या व्यक्ति की और उसकी हानि आगे चल कर भुगतनी ही होती है!”
- “मैं जीवन की अनिश्चितता से जरा भी नहीं घबराता!”
- “मुझमें जन्मजात प्रतिभा तो नहीं थी, परन्तु कठोर परिश्रम से बचने की प्रवृति मुझमे कभी नहीं रही!”
- “अपने कॉलेज जीवन की दहलीज़ पर खड़े होकर मुझे अनुभव हुआ, जीवन का अर्थ भी है और उद्देश्य भी!”
- “भविष्य अब भी मेरे हाथ में है!”
- “चरित्र निर्माण ही छात्रों का मुख्य कर्तव्य है!”
- “कर्म के बंधन को तोड़ना बहुत कठिन कार्य है!”
- “माँ का प्यार सबसे गहरा और स्वार्थ रहित होता है! इसको किसी भी प्रकार नापा नहीं जा सकता!”
- “याद रखिये अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना सबसे बड़ा अपराध है।”
- “एक सच्चे सैनिक को सैन्य और आध्यात्मिक दोनों ही प्रशिक्षण की ज़रुरत होती है।”
- “इतिहास साक्षी है कि केवल विचार-विमर्श से कोई ठोस परिवर्तन नहीं हासिल किया गया है।”