कावड़ और कावड़ यात्रा पर निबंध (Kawad and Kawad Yatra Essay in Hindi)

कांवड़ यात्रा की प्रथा हमारे देश में कई सौ साल पहले से चली आ रही है। पुराणों और ग्रंथों में भी कांवड़ यात्रा से संबंधित कुछ तथ्य मिलते हैं। कांवड़ यात्रा में भक्त कंधे पर कांवड़ लेकर अपने इष्ट भगवान शंकर के प्रसिद्ध मंदिरों में जल चढ़ाने के लिए पैदल यात्रा करते हैं। भगवान शिव के भक्तों द्वारा किये जाने वाला यह कांवड़ यात्रा सावन के महीनें में किया जाता है।

कावड़ और कावड़ यात्रा पर दीर्घ निबंध (Essay on Kawad and Kawad Yatra in Hindi, Kawad aur Kawad Yatra par Nibandh Hindi mein)

कावड़, कावड़ यात्रा व इसके महत्व के बारे में जानने के लिए पूरा निबंध पढ़ें –

कावड़, कावड़ यात्रा व महत्व – 1400 शब्द

प्रस्तावना

कांवड़ यात्रा हिन्दू धर्म के धार्मिक मान्यताओं में से एक है जो भारत के अधिकतर हिस्सों में शिवभक्तों द्वारा किया जाता है। सावन के माह में की जाने वाली इस यात्रा में लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ लग जाती है। सावन के माह में हम सड़कों पर गेरुआ वस्त्र पहने कंधे पर जल पात्र से बंधे कांवड़ को लेकर बोल-बम का नारा लगाते हुए भक्तों को देखते हैं जो शिव मंदिरों के लिए पैदल यात्रा करते हैं, ये यात्री कांवड़ीये या कांवड़ यात्री और इनकी ये पैदल यात्रा ही कांवड़ यात्रा कहलाती है।

कांवड़ किसे कहते हैं?

कांवड़ एक बांस का डंडा होता है जिसके दोनों शिरों पर एक हल्का जलपात्र बंधा होता है जिसमें शिवभक्त गंगाजल भरकर कांवड़ यात्रा करते हैं। कांवड़ को मजबूत और भार में हल्का बनाया जाता है ताकि भक्त इस कांवड़ को कंधे पर लेकर दूर तक पैदल यात्रा कर सकें। कांवड़ को इस प्रकार से बनाया जाता है कि कंधे पर कांवड़ को बीच से रखने पर दोनों तरफ इसका भर समतुल्य रहे। शिवभक्त अपने कांवड़ को भगवान शंकर के प्रतीकों के खिलौनों से सजाते हैं।

कांवड़ यात्रा

कांवड़ यात्रा भारत में शिवभक्तों द्वारा की जाने वाली एक वार्षिक यात्रा है जो हिन्दुओं के आस्था का प्रतीक है। प्रत्येक वर्ष कांवड़ यात्रा हिन्दू पंचांग के सावन माह में भगवान शिव की आराधना में उनके भक्तों द्वारा की जाती है। इस माह में भगवान शिव के ख़ास मंदिरों में कांवड़ यात्रियों की बहुत भीड़ होती है। भक्तों द्वारा काफी दूर-दूर तक यात्राएं की जाती हैं जिसमें भक्त हरिद्वार, गंगोत्री, गोमुख, प्रयागराज, वाराणसी और सुल्तानगंज जैसे प्रमुख स्थानों से गंगा जल भरकर भगवान शिव के विशेष मंदिरों काशी विश्वनाथ, वैद्यनाथ, औघड़नाथ, तारकनाथ और पूरा महादेव के मंदिरों में जाना अधिक पसंद करते हैं। कुछ शिवभक्त अपने गृहनगर के शिवालयों में भी जल अर्पित करते हैं।

ऐसे तो कांवड़ यात्रा में सावन के पूरे महीने भक्त भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं पर कांवड़ यात्री सावन माह की कृष्णपक्ष की त्रयोदशी और मुख्य रूप से चतुर्दशी के दिन को भगवान शिव का जलाभिषेक करने का शुभ दिन मानते हैं। बहुत से भक्त पैदल यात्राएं करते हैं और बहुत लोग मोटर वाहन, बस और साईकिल आदि से कांवड़ यात्रा करते हैं। कांवड़ यात्री यात्रा के दौरान एक बार कांवड़ उठा लेने के बाद जमीन पर नहीं रखते हैं। कांवड़ यात्री समूह में यात्रा करते हैं और एक दुसरे की मदद करते हुए आगे बढ़ते हैं। एक कांवड़ यात्री जबतक नितक्रिया करके स्नान करता है तबतक उसका सहयोगी कांवड़ अपने कंधे पर रखता है।

कांवड़ यात्रा के प्रकार

कांवड़ यात्रा बहुत ही निराली और अद्भुत होती है। ये कांवड़ यात्राएं मुख्यतः 4 प्रकार की होती हैं जिनके अपने-अपने नियम होते हैं-

1) सामान्य कांवड़ यात्रा – सामान्य कांवड़ में भक्त यात्रा में बीच-बीच में रुक कर आराम करते हुए आगे बढ़ते हैं। जगह-जगह लगे पंडाल और भक्तों के आराम करने और खाने-पीने की व्यवस्था होती है जहां सामान्य कांवड़ यात्री ठहर कर आराम करते हैं।

2) खड़ी कांवड़ यात्रा – कांवड़ यात्रा एक लम्बी यात्रा होती है और पैदल यात्रा करने वाले कांवड़ीया समूह में अपने सहयोगियों के साथ यात्रा करते हैं, जब एक कांवड़ यात्री थक जाता है और रुकता है तो उसका सहयोगी कांवड़ को कंधे पर रख कर चलाने के अंदाज में कांवड़ को हिलाता रहता है। इस कांवड़ यात्रा में कांवड़ को रोकते नहीं हैं।

3) डाक कांवड़ यात्रा – डाक कांवड़ में कांवड़ यात्री बिना रुके चलता रहता है। डाक कांवड़ यात्री के लिए लोग मंदिरों में रास्ता खाली कर देते हैं। मंदिर प्रशासन के तरफ से भी डाक कांवड़ियों के लिए विशेष व्यवस्था की जाती है।

4) दांडी कांवड़ यात्रा – यह सबसे कठिन कांवड़ यात्रा का प्रकार है जिसमें शिवभक्त नदी के तट से मंदिर तक लेटते हुए अपने शरीर की लम्बाई से नापकर दंड देते हुए पूरी करते हैं। बहुत कम ही लोग ये यात्रा करते हैं। कभी-कभी तो इस यात्रा को पूरा करने में 1 महीने का भी समय लग जाता है।

कांवड़ यात्रा का इतिहास

कांवड़ यात्रा का साक्ष्य तो 19वीं शताब्दी में भी मिलता है जब जगह-जगह कांवड़ लेकर यात्रा कर रहे भक्तों की रिपोर्ट अंग्रेजी सैनिकों द्वारा दी जाती थी।

कावड़ यात्रा कब से शुरू है? इससे संबंधित कई लोक कथाएं प्रचलित हैं जो निम्नलिखित हैं-

हिन्दू पुराणों के अनुसार जब समुद्र मंथन हुआ था तो अमृत से पहले “हलाहल” नामक विष निकला जिसे कोई देवता और दानव ग्रहण नहीं करना चाहते थें। हलाहल विष के तपन से पृथ्वी जलने लगी। इस तरह से पृथ्वी को जलते देख भगवान शंकर ने विष पीने का निश्चय किया और उन्होंने विषपान करते वक़्त विष को गले में ही रोक दिया। भगवान शिव के विष पीते ही उनका शरीर जलने लगा और भगवान शंकर का तापमान बढ़ने लगा।

भगवान शिव के तापमान को ठंडा करने के लिए 2 कहानियां कही जाती हैं एक ये है कि विषपान के बाद सभी देवताओं ने उनका जलाभिषेक करना शुरू कर दिया और भगवान इंद्र ने अपने शक्तियों से बारिश किया और कांवड़ प्रथा की शुरुवात किए। दूसरी कथा ये है कि विषपान के पश्चात भगवान शंकर का शरीर जलने लगा तो उन्होंने अपने महा भक्त रावण का स्मरण किया तब रावण ने कांवड़ में गंगा जल लाकर भगवान शिव पर अर्पित किया और इस प्रथा का आरम्भ किया।

एक कथा यह है कि सबसे पहले कांवड़ यात्रा का आरम्भ भगवान परशुराम द्वारा किया गया था। भगवान शंकर के परम भक्त श्री परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जल लेकर वर्तमान के बागपत जिले के “पूरा महादेव” मंदिर में भगवान शिव का जलाभिषेक करके इस कांवड़ परंपरा का आरम्भ किये।

कहीं-कहीं पर यह भी सुनने को मिलता है कि श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कंधे पर उठाकर तीर्थ कराने ले गये और आते वक़्त गंगाजल लेकर आए जिसे भगवान शिव पर अर्पित किए और तबसे इस प्रथा का चलन शुरू हुआ।

इन सभी मान्यताओं में सबसे अधिक मान्यता भगवान परशुराम की लोककथा की होती है।

कांवड़ यात्रा का महत्व

सावन के पवित्र महीने में शिवभक्तों द्वारा की जाने वाली इस यात्रा का बड़ा ही महत्व है। ऐसी मान्यता है कि कांवड़ यात्रा से अश्वमेघ यज्ञ जितना फल प्राप्त होता है। पैदल नंगे पांव भगवान शिव के जलाभिषेक के लिए जो यात्री कांवड़ यात्रा करते है वे जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं और उनके सभी पाप समाप्त हो जाते हैं। भगवान शिव के आशीर्वाद से भक्तों को मृत्यु के बाद शिवलोक की प्राप्ति होती है। कांवड़ यात्रा लोगों में भक्ति की भावना को और प्रगाढ़ करता है। ईश्वर में विश्वास हमें जीवन के राह पर सही और गलत में फर्क करना सिखाता है।

कोविड के कारण कांवड़ यात्रा पर प्रतिबंध

वर्ष 2020 में कोरोना की भयंकर महामारी ने पूरे देश को अपने चपेट में ले लिया था जिसके कारण कई महीनों तक लोगों को घर में रहना पड़ा। इस महामारी से बचाव के मद्देनजर 2020 में कांवड़ यात्रा को पूरी तरह से स्थगित कर दिया गया था। कोरोना का यह असर वर्ष 2021 में भी रहा जिसके कारण उत्तराखंड सरकार ने हरिद्वार में होने वाले कांवड़ियों की भीड़ को देखते हुए अपने राज्य में 2021 में भी कांवड़ यात्रा को पूरी तरह से स्थगित कर दिया। उत्तर प्रदेश में भी इस वर्ष कांवड़ यात्रा नहीं हुयी हालांकि कुछ गिने चुने लोग अपने आस-पास के मंदिरों में जलाभिषेक के लिए जाते हुए दिख जाते हैं।

निष्कर्ष

कांवड़ यात्रा हिन्दू परंपरा का एक हिस्सा भी है जिससे हिन्दुओं की धार्मिक आस्था जुड़ी हुई है। कांवड़ यात्रियों के विश्राम, भोजन, चिकित्सा आदि सेवाओं के लिए कई हिन्दू संगठन जैसे विश्व हिन्दू परिषद, स्वयं सेवक संघ, स्थानीय कांवर संघ और साथ में कुछ स्थानीय लोग भी मिलकर व्यवस्था करते हैं। यह हमारे देश की धार्मिक संस्कृति को भी दर्शाता है। कांवड़ यात्रा अनजान लोगों को भी एक दुसरे से जोड़ देता है। ऐसे मौकों पर कुछ लोग धार्मिक विविधता में भी एकता का परिचय देते हैं और इन यात्रियों के लिए जल की व्यवस्था करते हैं।

FAQs: Frequently Asked Questions on Kawad and Kawad Yatra in Hindi

प्रश्न 1 – कांवड़ यात्रा में कुल कितने यात्री शामिल होते हैं?

उत्तर – कांवड़ यात्रा में लगभग 25 लाख यात्री शामिल होते हैं।

प्रश्न 2 – कांवड़ यात्री कितनी दूरी तक पदयात्रा करते हैं?

उत्तर – कांवड़ यात्री लगभग 150 से 200 किलोमीटर तक की यात्रा करते हैं।

प्रश्न 3 – कांवड़ यात्रा किस माह में की जाती है?

उत्तर – कांवड़ यात्रा सावन माह में की जाती है।

प्रश्न 4 – कांवड़ यात्रा भारत में क्यों महत्वपूर्ण है?

उत्तर – कुम्भ मेले के बाद कांवड़ यात्रा दूसरा अवसर है जिसपर जनसमूह इकट्ठा होता है।

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