संत कबीर दास पर निबंध (Sant Kabir Das Essay in Hindi)

कबीर दास जी हमारे हिंदी साहित्य के एक जाने माने महान कवि होने के साथ ही एक समाज सुधारक भी थे, उन्होंने समाज में हो रहे अत्याचारों और कुरीतिओं को ख़त्म करने की बहुत कोशिश की, जिसके लिये उन्हें समाज से बहिष्कृत भी होना पड़ा, परन्तु वे अपने इरादों में अडिग रहे और अपनी अंतिम श्वास तक जगत कल्याण के लिये जीते रहे।

संत कबीर दास पर छोटे-बड़े निबंध (Short and Long Essay on Sant Kabir Das in Hindi, Sant Kabir Das par Nibandh Hindi mein)

संत कबीर दास पर निबंध – 1 (250 – 300 शब्द)

परिचय

कबीर दास जी हमारे भारतीय इतिहास के एक महान कवि थे, जिन्होंने भक्ति काल में जन्म लिया और ऐसी अद्भुत रचनाएँ की, कि वे अमर हो गए। इन्होंने हिन्दू माता के गर्भ से जन्म लिया और मुस्लिम अभिभावकों द्वारा इनका पालन-पोषण किया गया। दोनों धर्मों से जुड़े होने के बावजूद उन्होंने किसी धर्म को वरीयता नहीं दी और निर्गुण ब्रह्म के उपासक बन गए।

प्रारम्भिक जीवन और शिक्षा

सन् 1398 ई में कबीर दास जी का जन्म काशी के लहरतारा नामक क्षेत्र में हुआ था। इनका जीवन शुरू से ही संघर्षपूर्ण रहा है, जन्म किसी ब्राह्मण कन्या के उदर से लिया और उसने लोक-लाज के डर से इन्हें एक तालाब के पास छोड़ दिया। जहाँ से गुजर रहे एक जुलाहे मुस्लिम दंपति ने टोकरी में इन्हें देखा और इन्हें अपना लिया। और अपने पुत्र की तरह इनका पालन-पोषण किया।इन्होंने बहुत अधिक शिक्षा नहीं प्राप्त की, परन्तु शुरू से ही साधु-संतों के संगत में रहे और इनकी सोच भी बेहद अलग थी।

धर्म का प्रचार

उन्होंने अपना पूरा जीवन मानव मूल्यों की रक्षा और मानव सेवा में व्यतीत कर दी।वे शुरू से हमारे समाज में प्रचलित पाखंडों, कुरीतियों, अंधविश्वास, धर्म के नाम पर होने वाले अत्याचारों का खंडन और विरोध करते थे, और शायद यही वजह है की इन्होंने निराकार ब्रह्म की उपासना की। इनपर स्वामी रामानंद जी का बेहद प्रभाव था।

निष्कर्ष

इतिहास गवाह है, की जब-जब किसी ने समाज में सुधार लाने की कोशिश की है तो उसे समाज दरकिनार कर देती है और केवल उन्हीं नामों को इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुए हैं जो समाज से बिना डरे अपने इरादों में अडिग रहे। कबीर दास जी के भजन और दोहे आज भी घर-घर में बजाये जाते हैं और यह प्रदर्शित करता है की वे अपने आप में एक बहुत बड़े महात्मा थे।

निबंध 2 (400 शब्द) – कबीर दास जी की शिक्षा व रचनाएँ

परिचय

कबीर दास जी की वास्तविक जन्म तिथि किसी को ज्ञात नहीं, किन्तु उनके काल के आधार पर ऐसा माना जाता है की उनका जन्म 1398 में काशी में हुआ था। वास्तव में उनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी की गर्भ से हुआ था जिसने कोक-लाज के डर से इन्हें एक तालाब के समीप रख दिया और यहाँ से एक जुलाहा जोड़े ने उन्हें पाया और अपने पुत्र की तरह इन्हें पाला।

कबीर दास जी की शिक्षा

जैसा की वे एक जुलाहे के परिवार से थे तो शुरू से परिवार की विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उन्हें मिल गयी थी, परन्तु अपनी धार्मिक शिक्षा उन्होंने स्वामी रामानंद जी से ली।

एक बार की बात है जब कबीर दास जी घाट पर सीढ़ियों पर लेटे हुए थे और वहां से स्वामी रामानंद गुजरे और उन्होंने अनजाने में अपने पैर कबीर दास जी पर रख दीये और ऐसा करने के बाद वे राम-राम कहने लगे और उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और इस तरह वे कबीर दास जी को अपना शिष्य बनाने पर मजबूर हो गए। और इस प्रकार उन्हें रामानंद जी का सानिध्य प्राप्त हुआ। वे स्वामी रामानंद के सबसे चहेते शिष्य थे और वे जो भी बताते उसे तुरंत कंठस्थ कर लेते और उनकी बातों का सदैव अपने जीवन में अमल करते।

कबीर दास जी की रचनाएँ

वे बेहद ज्ञानी थे और स्कूली शिक्षा न प्राप्त करते हुए भी अवधि, ब्रज, और भोजपुरी व हिंदी जैसी भाषाओं पर इनकी सामान पकड़ थी। इन सब के साथ-साथ राजस्थानी, हरयाणवी, खड़ी बोली जैसी भाषाओं में महारथी थे। उनकी रचनाओं में सभी भाषाओं की झांकी मिल जाती है इस लिये इनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ व ‘खिचड़ी’ कही जाती है।

कबीर दास जी ने आम शिक्षा नहीं ली थी इस कारण उन्होंने स्वयं कुछ नहीं लिखा परन्तु इनके शिष्यों ने उनके बोल संग्रहित कर लिया। उनके एक शिष्य धर्मदास ने बीजक नामक ग्रन्थ का निर्माण किया। इस बीजक के तीन भाग हैं, जिनमें से पहला है; साखी, दूसरा सबद, और तीसरा रमैनी।

इन सब के अलावा सुखनिधन, होली अगम, आदि जैसी इनकी रचनाएँ बेहद प्रचलित हैं।

निष्कर्ष

कबीर दास जी एक महान समाज सेवक थे और उस दौर में भी उन्होंने पूजा पाठ के नाम पर होने वाले पाखंड, समाज में प्रचलित कई प्रकार के कुरीतियों, जाती-पाती, मूर्ति पूजन, कर्म कांड, आदि जैसी कई अन्य बुराइयों का खुल कर खंडन किया और बिना किसी से डरे इसका विरोध करते रहे। वे वाकई एक महान कवि थे जिसकी तुलना शायद किसी से नहीं की जा सकती।

निबंध 3 (500 शब्द) – कबीर एक समाज उद्धारक

परिचय

भक्ति कालीन युग में जन्में हिंदी साहित्य के एक अनमोल कवि, जिनके जन्म को लेकर कई किम्वदंतियां प्रचलित हैं और माना जाता है की इनका जन्म 13 वीं से 14 वीं सदी के बीच हुई थी। इनकी माता एक ब्राह्मण विधवा थी, जिन्होंने इन्हें ऋषि मुनियों के आशीर्वाद से प्राप्त किया था। परन्तु विधवा होने के कारण लोक-लाज के डर से इन्हें जन्म के पश्चात एक तालाब के किनारे इन्हें छोड़ आई, जिसे लहरतारा नाम से जाना जाता है और यह आज भी काशी नगरी में मौजूद है।

वहां से एक मुस्लिम दंपति जिनका नाम नीमा और नीरू था ने उन्हें उठाया और अपने पुत्र की तरह इनका पालन पोषण किया। नीमा और नीरू पेशे से जुलाहे थे, परन्तु अपने पुत्र की तरह इन्हें पाला और इनका नाम कबीर रखा, जिसका अर्थ श्रेष्ठ होता है।

कबीर एक समाज उद्धारक

  • कर्म पर भरोसा: कबीर का केवल जन्म ही नहीं अपितु मृत्यु भी बहुत बड़ी रहस्यमय तरीके से हुई। जैसा की कहा जाता है की काशी में मृत्यु होने पर सीधा मोक्ष की प्राप्ति होती है परन्तु कबीर दास जी ने इस कथन को असत्य ठहराते हुए, मृत्यु के समय मगहर (काशी से बहार का क्षेत्र) चले गए और वही उनकी मृत्यु हुई।

“सूरज चन्‍द्र का एक ही उजियारा, सब यहि पसरा ब्रह्म पसारा।

जल में कुम्‍भ, कुम्‍भ में जल है, बाहर भीतर पानी

फूटा कुम्‍भ जल जलहीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।”

  • सब धर्म एक हैं: कबीर दास जी ने अपना पूरा जीवन साधुओं और फकीरों के साथ समाज के उद्धार हेतु गुजार दिया। और वे निराकार ब्रह्म के उपासक थे और मूर्ति पूजन का खंडन करते थे, वे जन्म से हिन्दू थे और उनका पालन-पोषण एक मुस्लिम परिवार में हुआ था परन्तु वे दोनों धर्मों को नहीं मानते थे;

“हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना

आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मरे, मरम न जाना कोई।”

उनका मानना यह था की सब जाती, धर्म एक है और हम सब के अन्दर खुदा या भगवन का वास है, इस लिये स्वयं के विचार शुद्ध रखो यही सबसे बड़ी भक्ति है।

  • सत्य सबसे बड़ा तप: उनका कहना था की दुनिया में सत्य से बढ़ कर कुछ नहीं होता और यही सबसे बड़ा तप है जिसे कोई झुटला नहीं सकता।

“सत बराबर तप नहीं, झूठ बराबर नहीं पाप,

ताके हृदय साँच हैं, जाके हृदय आप।”

  • व्रत और पाखंड का विरोध: उनके अनुसार भगवन व्रत और उपवास से प्रसन्न नहीं होते क्यों की क्या फायदा ऐसे व्रत का जिसके करने के बाद भी आप झूठ बोलते हों, जीव हत्या करते हों। उन्होंने सभी धर्मों के इस विधान का विरोध किया;

“दिन को रोजा रहत है, राज हनत हो गया,

मेहि खून, वह वंदगी, क्योंकर खुशी खुदाय।”

निष्कर्ष

यह कहना गलत नहीं होगा की, आज भी हमारे समाज में कई कुरीतियाँ हैं। और उस काल में कबीर दास जी ने इसका कुल जोर खंडन किया था। इसके लिये उन्हें कई बार समाज से निष्कासित भी किया गया परन्तु उन्होंने अपना मार्ग नहीं छोड़ा। उनका जन्म भी एक उदाहरण है, की किस प्रकार दोनों धर्मों से नाता होने के बावजूद दोनों का खंडन कर दिया और मृत्यु भी, की किस प्रकार किसी विशेष स्थान या कुल में जन्म लेने या मरने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इसके लिये केवल आवश्यक है अच्छी नियत की और हर व्यक्ति में भगवन की उपस्थिति को पहचानने की।

Essay on Kabir Das

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