विश्व में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिस की कोई ख्वाहिशें नहीं हों, नीचे दिए गए कविताओं में खुद की ख्वाहिशों पर प्रकाश डाला गया है। खुद पर कविता कवि या कवियत्री की अपने खुद के विचारों की अभिव्यक्ति है। खुद पर कविता शीर्षक के अन्तर्गत हम अपने पेशेवर लेखकों द्वारा लिखी गयी, उनके खुद के विचारों पर स्वरचित कविताएं, इस उम्मीद के साथ उपलब्ध करा रहे हैं कि आप इन्हें पसंद करेंगे। खुद पर कविता, स्वरचित कविताओं की एक श्रंखला है, जो लेखक के खुद के लिये विचारों की अभिव्यक्ति है। खुद पर कविता, वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुये लेखक से संबंधित किसी भी सदस्य, मित्र, पड़ौसी या उसके अपने स्वंय के लिये विचारों का काव्यात्मक रुप है।
खुद पर कवितायें (Poems on Myself in Hindi)
कविता 1
शीर्षक: ‘मेरी ख्वाहिशें’
आसमान की बुलंदियों तक जाना है मुझे, – २
जहाँ से अक्सर देखा करूँगा मै तुझे,
कोशिश करूँगा ले जाने की तुझे भी,
ऐ दोस्त, गर साथ दे,
तेरी-मेरी दोस्ती और इस कायनात का रुख |
जी चाहता है चुरा लू, दुःख सभी की जिंदगी से, -२
की देख ना पाऊं दुःख, इक पल भी किसी के चेहरे पे,
चाहत है हो दुनिया ऐसी, जहाँ दिखे हर एक की आँखों में ख़ुशी,
रोये तो रोये गम रोये, क्यों रोये ये दो पल के बंजारे,
क्यों रोये ये दो पल के बंजारे ||
———अर्चना त्यागी
कविता 2
‘बुलंद हौसले’
सोचती हूँ जिसे अगर मैं, वो तुरन्त मिलता नहीं,
मेहनत करुँ मैं मगर तो दूर मुझसे रह सकता नहीं।।
अनजान थी खुद से मैं, “कौन हूँ मैं?” होता था बस यही एक सवाल,
बिना जबाव के न जाने क्यूँ, दिल रहता था यूँ ही बेकरार,
जान जाना यूँ खुद को था कोई आसान नहीं
हार मान लूँ मैं भी यूँ ही, था ये मेरे बस का काम नहीं।।
परिवार और अपनों से मिली समाज की परंपराओं को जाना,
हर किसी ने कहा लड़की हो तुम छोड़ अपनों को,
किसी और के घर ही हैं तुमको जाना,
जिम्मेदारी हो तुम सिर्फ माँ-बाप और परिवार की,
लड़की की शादी करके विदा करना ही परम्परा हैं समाज की,
निकलों अपने ख्बाबों से तुम, ये घर अपना नहीं बेगाना हैं,
छोड़ तुमको सब कुछ यहीं पर एक दिन यहाँ से जाना हैं।।
लगा एक अजीब सा सदमा, क्यूँ नहीं मेरा घर अपना,
जन्म देने वालो को अगर छोड़ना ही हकीकत हैं,
इसके लिये फिर क्यूँ किसी की दुल्हन बनने की जरुरत हैं,
हैं शादी अगर समाज की परम्परा तो,
मौत इंसानी जीवन की सबसे बड़ी असलियत हैं,
यदि छूटना हैं सब कुछ अपना फिर क्यूँ न कुछ ऐसा कर जाऊँ
बेगानी होकर भी सबकी मैं, सबकों अपना बना जाऊँ।।
नहीं कर सकती अगर उन जन्म देने वालों की उम्र भर सेवा,
तो क्यूँ न करुँ फिर मैं पूरे समाज की सेवा,
हूँ अगर परायी मैं अपने जन्मदाताओं की,
तो नहीं जरुरत हैं मुझको फिर, समाज के परम्पराओं की दुहाई की||
समाज की पुरानी लकीर की फकीर मैं ना बन पाऊँगी.
तोड़ के समाज की जंजीरों को, मैं अपनी अलग पहचान बनाऊँगी,
दूर कर दें जो अपनों से ऐसी खोखली परम्परा मुझे मंजूर नहीं,
तोड़ दे मेरे बुलन्द हौंसलों को अब इन झूठी रस्मों में इतना दम नहीं।।
— वन्दना शर्मा