संत रविदास जयंती पर भाषण

निर्गुण भक्ति शाखा के महान कवि एवं संत शिरोमणि रैदास (संत रविदास) उन महान पुरुषों में से एक है, जिन्होंने समाज की धारा का रुख मोड़ दिया था। उनके द्वारा गाए दोहों और पदों से आम जनता का उध्दार हुआ। अत्यंत सहृदयी स्वभाव के रैदास को संत कबीर का समकालीन माना जाता है। वो भी कबीर की ही भांति कर्म को ही महत्ता देते थे। जात-पात आदि से कोसो दूर रहते थे और लोगों को भी यही सीख देते थे।

संत रविदास जयंती पर छोटे-बड़े भाषण (Short and Long Speech on Sant Ravidas Jayanti in Hindi)

भाषण 1

आदरणीय प्रधानाचार्य, अध्यापक महोदय और मेरे प्यारे मित्रों आप सभी का मैं अभिनंदन करती हूँ, और हृदय से आभार देती हूँ, जो आप सबने मुझे आज दो शब्द कहने का मौका दिया। यहाँ आज हम सभी संत रैदास के जयंती समारोह हेतु एकत्रित हुए हैं।

रविदास जयंती का पर्व संत रविदास जी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। उनका जन्म 1433 में बनारस के सीर गोवर्धन गाँव में रग्घू और घुरबिनिया देवी के यहाँ हुआ था। रविदास हरिजन परिवार से थे, और उन्हें अछूत माना जाता था। रविदास जी एक महान संत, कवि, समाज सुधारक और भगवान के अनुयायी थे। रविदास निर्गुण सम्प्रदाय के प्रसिद्ध और प्रमुख हस्ती में से एक थे। रविदास ने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए काम किया। रविदास जी ने अपना पूरा जीवन जाति और वर्ग के आधार पर हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए समर्पित कर दिया।

“कृष्ण, करीम, राम, हरी, राघव, जब लग एक न पेखा।

वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहीं देखा।।”

गुरु रविदास का उपदेश ‘शबद’ में जोड़ा गया है, जो श्री गुरु ग्रंथ साहिब का हिस्सा हैं, जहाँ 40 पद श्री गुरु रविदास जी के हैं। संत रविदास के पास कई अमीर राजा और रानी आए लेकिन उन्होंने कभी किसी भी राजा के उपहार को स्वीकार नहीं किया।

हिंदू कैलेंडर में माघ महीने की पूर्णिमा के दिन गुरु रविदास जयंती मनाई जाती है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह फरवरी/मार्च के महीने में आता है। यह मुख्य रूप से उत्तर भारत में विशेष रूप से पंजाब में मनाया जाता है।

गुरु रविदास जयंती पर्व रविदासिया धर्म का वार्षिक केंद्र बिंदु है। इस दिन, संगीत और नृत्य के साथ मंदिर-परिसर और सड़कों पर गुरु रविदास के चित्र के साथ जुलुस निकाला जाता है। भक्तजन, रीति अनुसार पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं। गुरु रविदास की छवि की पूजा की जाती है। गुरु रविदास जयंती के मौके पर हर साल गुरु रविदास जन्मस्थान मंदिर में, दुनिया भर से लाखों भक्त आते हैं और बड़े भव्य तरीके से जन्मोत्सव मनाते हैं।

इसी के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देना चाहूँगी। जाते-जाते हम सभी ये संकल्प लें, कि संत रैदास के वचनों का पालन करेंगे और अपने जीवन में भी उतारेंगे।

धन्यवाद।।

भाषण 2

माननीय अतिथि महोदय, प्रधानाचार्य, आचार्य और मेरे सहपाठियों – आप सभी को मेरा प्रणाम। आज हम सब संत रविदास की जयंती समारोह के उपलक्ष्य में इकट्ठा हुए हैं।

गुरु रविदास 15 वीं से 16 वीं शताब्दी के दौरान भक्ति आंदोलन के सबसे आध्यात्मिक भारतीय रहस्यवादी कवि-संत थे। हर साल पूर्णिमा के दिन, माघ महीने में गुरु रविदास जयंती के रूप में उनका जन्मदिन मनाया जाता है।

गुरु का जन्म माघ पूर्णिमा के दिन सीर गोवर्धन गाँव, वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनकी जन्मभूमि अब श्री गुरु रविदास जनम स्थली के रूप में पूरे विश्व में विख्यात है।

गुरु रैदास का जन्म माता घुरबीनिया और पिता रघुराम (रग्घु) के घर हुआ था। उनका परिवार शुद्र जाति से ताल्लुक रखता था, क्योंकि उनके माता-पिता चमड़े का काम करने वाले चमार समुदाय से थे।

महान संत रैदास, रोहिदास और रूहीदास जैसे कई अन्य नामों से प्रसिद्ध है। उन्हें पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के क्षेत्र में एक गुरु के रूप में पहचान मिली थी। वे एक प्रसिद्ध कवि-संत, समाज सुधारक और आध्यात्मिक व्यक्ति थे।

उनके भक्ति गीतों ने भक्ति आंदोलन पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ा। उनके गीतों को सिख ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब में खूबसूरती से पिरोया गया है। उनके भक्ति गीत आज भी जनता द्वारा गाए जाते हैं। जैसे –

“कह रैदास तेरी भगति दूरी है, भाग बड़े सो पावे।

तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।”

इस पद से उनका आशय था कि ईश्वर की भक्ति का मौका बड़े भाग्य से मिलता है। उसे अभिमान में पड़कर खराब नहीं करना चाहिए। जैसे विशालकाय हाथी चीनी के दानों को नहीं चुन सकता। जबकि छोटी सी चींटी इसे आसानी से चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान से दूर रहकर ही हम ईश्वर की सच्ची भक्ति कर सकते है।

  1. “अब कैसे छूटे राम नाम रट लागी।

प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।।

प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।।

प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।।

प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।।

प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै ‘रैदासा’।।”

  • “जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।

रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।”

  • “मन चंगा तो कठौती में गंगा।।”
  • “बाभन कहत वेद के जाये, पढ़त लिखत कछु समुझ न आवत।”
  • “मन ही पूजा मन ही धूप, मन ही सेऊँ सहज सरूप।”

लोग उन्हें धार्मिक विरोध के जीवंत प्रतीक के रूप में मानते हैं। हर साल उनकी जयंती के दिन लोग पवित्र गंगा नदी में स्नान करते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में सुबह-सुबह उत्सव शुरू होता है, जहां उनके भक्त भजन-कीर्तन गाते हैं और बड़े पैमाने पर भंडारे का आयोजन किया जाता है। उनके भक्त, उनका आशीर्वाद पाने के लिए गुरु की पूजा-उपासना करते हैं। यह दिन सबसे महत्वपूर्ण हिंदू उत्सवों में से एक माना जाता है।

इसी के साथ मैं अपनी बात को यहीं खत्म करती हूँ।

धन्यवाद।

भाषण 3

आदरणीय प्रधानाध्यापक, अतिथि गण, शिक्षक गण, अभिभावक एवं मेरे प्रिय मित्रों। सभी का मैं सादर अभिनंदन करती हूँ।

हम सब आज यहाँ संत रविदास की जयंती मनाने एकत्र हुए हैं। आज ही के दिन वाराणसी के सीर गोवर्धन गांव में, संवत 1433 में, माघ मास की पूर्णिमा पर संत रविदास का इस धरती पर अवतरण हुआ था।

“चौदह सौ तैतीस कि माघ सुदी पंदरास। दुखियों के कल्याण हित प्रगटे रविदास।।”

रविदास का जन्म शुद्र परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम रग्घू था और वे जुते बनाने का काम करते थे। इनकी माता का नाम घुरबिनिया था। वो धार्मिक विचारों की महिला थी। इनकी शादी छोटी उम्र में ही हो गयी थी। इनकी पत्नी का नाम लोना बताया जाता है। इनके दो बच्चे थे, पुत्र का नाम विजयदास और पुत्री का नाम रविदासिनी था।

रविदास बाल्यकाल से ही काफी प्रतिभाशाली थे। उन्हें प्रारंभ से ही साधु-संतो की संगति अच्छी लगती थी। चूंकि उस समय समाज कई टुकड़ो में बँटा था। लोग कभी धर्म के नाम पर, तो कभी जाति के नाम पर एक-दूसरे का खून बहा दिया करते थे। ऐसे में संत रविदास का जन्म किसी अवतार से कम नहीं था।

रविदास बचपन से ही पढ़ने में होशियार थे। अध्यापक के थोड़ा पढ़ाने से ही वो ज्यादा समझ लेते थे। लेकिन चमार जाति का होने के कारण बाकि बच्चे इन्हें पढ़ने नहीं देते थे। लेकिन इनके गुरु पंडित शारदानंद, जो जात-पात को बिलकुल नहीं मानते थे। धर्म के कुछ ठेकेदारों ने उन्हें बालक रविदास को पढ़ाने से मना कर दिया और डराने-धमकाने लगे। वो अकेले तो सबका सामना नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने समझदारी से काम लिया और रविदास को अब विद्यालय में न पढ़ाकर अपने घर में पढ़ाने लगे। पंडित जी पहले ही समझ गये थे, कि यह बालक विशेष है, और इसका जन्म किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ है। संत रविदास की उन्नति में कहीं न कहीं उनके गुरु का भी योगदान था।

रविदास, जिन्हें रैदास के नाम से भी जाना जाता है, एक मोची, संत, कवि, दार्शनिक और समाज सुधारक थे, जिन्होंने सदियों से चली आ रही छुआछूत की व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठायी। उनका भक्ति-मार्ग सामाजिक विरोध करने का तरीका था। हालाँकि, उन्होंने कभी चमड़े के काम के व्यवसाय को नहीं छोड़ा, और श्रम की गरिमा का प्रचार किया। उनका कहना था कि कर्म ही सबसे बड़ी पूजा होती है। उन्होंने जाति-आधारित सामाजिक बहिष्कार और उत्पीड़न से लड़ने के लिए निर्गुण सम्प्रदाय का चयन किया। रैदास के तौर-तरीकों ने सभी के लिए एक नया रास्ता खोला। उनके विचारों ने सामाजिक दर्शन के लोकतांत्रिक और समतावादी लक्षणों को दर्शाया।

रविदास ने अपने कृत्यों से ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता को चुनौती दी। दूसरे शब्दों में, उन्होंने चमड़े के काम करते समय प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में अपनी पोशाक को उच्च कुलीन वर्ग के समान धारण किया करते थे। यह न केवल अत्यधिक आपत्तिजनक था, बल्कि तत्कालीन समय के हिसाब से, निम्न जाति के व्यक्ति के लिए उतना ही घातक भी था। भारतीय इतिहास में मध्ययुगीन काल के दौरान, जानवरों को भी निम्न सामाजिक समूहों से जुड़े लोगों की तुलना में बेहतर माना जाता था, इन समूहों के लिए मुखरता और आत्म-सम्मान की अवधारणा नहीं थी। इन लोगों को गुलाम समझा जाता था। इन समूहों को जातिवादी हिंदू समाज में आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने से रोक दिया जाता था।

यह रविदास के नेतृत्व में आंदोलन था जिसने इन सामाजिक समूहों में से कुछ को स्वयं के लिए लड़ने की शक्ति प्रदान की और अपने आत्म-सम्मान की स्थापना करने में मदद की। रैदास जी ने निराकार भगवान की अवधारणा को स्वीकार किया।

इन्हीं वचनों के साथ मैं अपनी वाणी को यही विराम देती हूँ।

धन्यवाद।।


भाषण 4

नमस्कार आप सभी का आज के इस शुभ दिन पर स्वागत है। आज हम सभी संत रैदास की जयंती मनाने एकत्र हुए हैं।

रविदास जयंती की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।

“भला किसी का कर न सको, तो बुरा किसी का मत करना।

पुष्प नहीं बन सकते, तो तुम कांटे बन कर मत रहना।।”

14 वीं – 16 वीं शताब्दी को भक्ति काल का युग माना जाता है। इस युग में, गुरु रविदास एक युगद्रष्टा, एक रहस्यवादी कवि और एक महान संत के रूप में जाने जाते हैं। उन्हें रैदास की उपाधि भी प्राप्त है। उन्हें गुरु रविदास के नाम से भी जाना जाता है।

संत रविदास एक महान संत, कवि, आध्यात्मिक गुरु और समाज सुधारक के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने रविदास धर्म की स्थापना की है।

उन्हें ईश्वर से गहरा प्रेम था। उन्होंने अपने आध्यात्मिक ज्ञान से जाति-धर्म के कल्याण के लिए कई कार्य किए हैं। उत्तर भारत में, उन्होंने अपने धर्म और भक्ति के प्रभाव से सभी वर्गों के लोगों को प्रभावित किया। रविदास, भारत में 15 वीं शताब्दी के महान संत, दार्शनिक, कवि, समाज सुधारक और ईश्वर के अनुयायी थे। वह एक उज्ज्वल नेता और निर्गुण संप्रदाय के एक प्रसिद्ध व्यक्ति थे। उन्होंने संत परंपरा और उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन का नेतृत्व दिया। अपने महान काव्य लेखन के माध्यम से, भगवान के प्रति अपने असीम प्रेम को दर्शाया। सामाजिक लोगों को बेहतर बनाने के लिए, कई प्रकार के आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिए।

वह एक मसीहा के रूप में लोगों की नज़रों में छा गए थे, जिसने उनकी सामाजिक और आध्यात्मिक ख्याति को बढ़ाया। आध्यात्मिक रूप से समृद्ध रविदास को लोगों द्वारा पूजा जाता था। रविदास के हर जन्म दिन और किसी भी धार्मिक कार्यक्रम के अवसर पर, लोग उनके महान गीतों को सुनते या पढ़ते हैं। उन्हें दुनिया भर में प्यार और सम्मान दिया जाता है, हालांकि उन्हें उत्तर प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र में उनके भक्ति आंदोलन और धार्मिक गीतों के लिए ज्यादा याद किया जाता है।

अब थोड़ा उनके निजी जीवन पर प्रकाश डालते हैं।

पूरे भारत में खुशी और उत्साह के साथ, माघ महीने की पूर्णिमा के दिन हर साल संत रविदास की जयंती मनाई जाती है। वाराणसी में लोग इसे एक त्यौहार या उत्सव के रूप में मनाते हैं। इस विशेष दिन पर, आरती की जाती है और कार्यक्रम के दौरान, लोगों द्वारा मंत्रों की स्तुति की जाती है। इस दिन शहर-भर में जुलूस निकालने का रिवाज है, जिसमें सड़कों पर गीत और दोहे गाए जाते हैं। रविदास के अनुयायी और अन्य भी उनके जन्म-दिन पर गंगा-स्नान करते हैं और घर या मंदिर में बने चित्र की पूजा करते हैं। इस त्यौहार को एक उत्सव की तरह मनाते है। वाराणसी में सीर गोवर्धनपुर के श्री गुरु रविदास जन्मस्थान पर हर साल बहुत भव्य तरीके से मनाया जाता है। संत रविदास के भक्त दुनिया भर से इस त्योहार में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए वाराणसी आते हैं।

संत रविदास का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में 15 वीं शताब्दी में माँ घुरबिनिया देवी और बाबा रग्घु के घर में हुआ था। हालांकि, जन्म की तारीख को लेकर विवाद है। कुछ का मानना ​​है कि ये 1376, 1377 और कुछ का कहना है कि 1399 सीई में हुआ था। कुछ विद्वानों के आंकड़ों के अनुसार, यह अनुमान लगाया गया था कि रविदास का संपूर्ण जीवन काल 15 वीं से 16 वीं शताब्दी में 1430 से 1520 तक था।

रविदास के पिता मल साम्राज्य के राजा नगर के सरपंच थे और वे खुद जूते बनाने और मरम्मत का काम करते थे। बचपन से ही रविदास बहुत बहादुर और भगवान के बहुत बड़े भक्त थे, लेकिन उन्हें उच्च जाति द्वारा उत्पन्न भेदभाव के कारण बहुत संघर्ष करना पड़ा, और बाद में अपने लेखन के माध्यम से, रविदास जी ने लोगों को इससे उबरने का संदेश दिया।

अपने अनुयायियों को दी गई महान शिक्षा के साथ-साथ दुनिया भर में भाईचारे और शांति की स्थापना के लिए, संत रविदास का जन्म दिवस मनाया जाता है। अपने शिक्षण के शुरुआती दिनों में, उनकी शिक्षा काशी में रहने वाले रूढ़िवादी ब्राह्मणों द्वारा रोक दी गई थी, क्योंकि संत रविदास भी अस्पृश्यता के विरोधी थे। सामाजिक व्यवस्था को खराब करने के लिए उन्हें राजा के समक्ष पेश किया गया था। रविदास को भगवान के बारे में बात करने के साथ-साथ अपने समर्थकों और शिष्यों को सिखाने और सलाह देने पर भी प्रतिबंध था।

बचपन में संत रविदास अपने गुरु पंडितशारदानंद के स्कूल में गए, जिसे बाद में कुछ उच्च जाति के लोगों ने रोक दिया। हालाँकि पंडितशारदा को लगा कि रविदास कोई सामान्य बच्चा नहीं है, वह भगवान द्वारा भेजा गया बच्चा है, इसलिए पंडितशारदानंद ने रविदास को अपने स्कूल में भर्ती कराया और उनकी शिक्षा शुरू की। वह बहुत तेज़ और होनहार थे और अपने गुरु के पढ़ाने से ज्यादा समझते थे। पंडितशारदानंद उनसे और उनके व्यवहार से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी, कि एक दिन रविदास आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध और महान समाज सुधारक के रूप में जाने जाएंगे।

संत रविदास बचपन से ही चमत्कारिक थे। स्कूल में पढ़ने के दौरान, रविदास पंडित शारदानंद के बेटे के दोस्त बन गए। एक दिन, दोनों लोग एक बाग में एक साथ खेल रहे थे, पहली बार रविदास जी जीते और दूसरी बार उनके दोस्त जीते। अगली बार, रविदासजी की बारी थी, लेकिन अंधेरा होने के कारण वे खेल को पूरा नहीं कर सके, जिसके बाद दोनों ने अगले दिन सुबह खेल जारी रखने का फैसला किया। अगली सुबह रविदासजी आए लेकिन उनके मित्र नहीं आए। काफी देर तक इंतजार करने के बाद वह अपने दोस्त के घर गये और पाया कि उसके दोस्त के माता-पिता और पड़ोसी रो रहे थे।

उन्होंने उनमें से एक से कारण पूछा तो पता चला कि इनके दोस्त की अचानक मौत हो गई थी। अपने दोस्त की मौत की खबर सुनकर वे चौंक गए। उसके बाद, उनके गुरु ने संत रविदास को उनके बेटे की लाश के पास लेकर गए। वहाँ पहुँचने पर, रविदास ने अपने दोस्त से कहा, “उठो, यह सोने का समय नहीं है, दोस्त, यह छिपने-छिपाने और खेलने का समय है। जैसा हमारे बीच तय हुआ था।”

और ऐसा सुना जाता है कि उनका दोस्त उनकी बात सुनकर मौत के मुँह से बाहर आ गया और उठ खड़ा हो गया था। ऐसे ही कई सारे चमत्कार किए थे संत रविदास ने।

ऐसी ही एक घटना “मन चंगा तो कठौती में गंगा” से संबंधित है। एक बार रैदास के कुछ शिष्य गंगा स्नान के लिए जा रहे थे। तो सबने रैदास जी को भी साथ चलने को कहा। लेकिन रैदास जी ने मना कर दिया, क्योंकि उन्होंने किसी को समय पर जुता बनाकर देने का वादा कर दिया था। और वो अपना वादा तोड़ नहीं सकते थे। उन्होंने कहा कि, “गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।” 

तभी से यह कहावत प्रचलित हो गयी – “मन चंगा तो कठौती में गंगा।”

धन्यवाद।

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